चुनाव लोकतंत्र का सबसे बड़ा उत्सव
अगर आप भारत की चुनावी प्रक्रिया को ध्यान से देखे तो आये दिन देश के किसी-न-किसी इलाके में आपको चुनाव का दृश्य देखने को मिल जायेगा। कभी कोई वार्ड पार्षद का चुनाव, कभी MCD चुनाव, कभी विधानसभा तो कभी लोकसभा चुनाव। जैसे देश में इतने सारे त्यौहार आते हैं, वैसे ही देश में चुनाव भी आते हैं। इसी कारण देश में अक्सर वन नेशन-वन इलेक्शन का मुद्दा चर्चा में बना रहता है।
चुनाव लोकतंत्र का सबसे बड़ा उत्सव माना जाता है। चुनावों की इस निरंतरता के कारण देश लगातार चुनावी मोड में बना रहता है। चुनाव से पहले लगने वाले अचार संहिता के कारण न केवल प्रशासनिक और नीतिगत काम प्रभावित होते हैं बल्कि देश के खजाने पर भी भारी बोझ पड़ता है। हाल ही में हुए 17वीं लोकसभा के चुनाव में एक अनुमान के अनुसार, 60 हज़ार करोड़ रुपए से अधिक का खर्च आया और लगभग तीन महीने तक देश में चुनावी माहौल रहा।
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मोदी सरकार ने भी जोर दिया है एक देश एक चुनाव पर
साल था 2014 का जब केंद्र में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार आई थी। उसके कुछ समय बाद ही एक देश और एक चुनाव को लेकर बहस शुरू हो गई थी। प्रधानमंत्री मोदी कई बार वन नेशन-वन इलेक्शन की वकालत कर चुके हैं। एक बार फिर उन्होंने इसे दोहराया है। संविधान दिवस के मौके पर प्रधानमंत्री मोदी ने कहा था कि, ‘आज एक देश-एक चुनाव सिर्फ बहस का मुद्दा नहीं रहा, बल्कि अब ये भारत की जरूरत है। इसलिए इस मसले पर गहन विचार-विमर्श और अध्ययन किया जाना चाहिए।’
क्या है वन नेशन-वन इलेक्शन?
सबसे पहले यह जान लेते हैं की आखिर, वन नेशन-वन इलेक्शन या एक देश-एक चुनाव है क्या। एक देश-एक चुनाव का मतलब है कि पूरे देश में एक साथ ही लोकसभा और विधानसभा के चुनाव हों। देश के इतिहास को भी देखे तो आजादी के बाद 1952, 1957, 1962 और 1967 में लोकसभा तथा विधानसभा के चुनाव एक साथ ही होते थे, लेकिन साल 1968 और 1969 में कई विधानसभाएं समय से पहले ही भंग कर दी गई थी। उसके बाद 1970 में लोकसभा भी भंग कर दी गई। यहीं से एक देश-एक चुनाव की परंपरा टूट गई।
वन-नेशन-वन-इलेक्शन के फायदे
एक-देश-एक-चुनाव का सबसे बड़ा फायदा यह है की देश भर में हो रहे चुनावी खर्च में भारी कटौती देखी जाएगी। इसका उदाहरण आपको इससे मिल जायेगा कि 1951-52 में लोकसभा का पहला चुनाव हुआ था। इस चुनाव में 53 दलों ने भागीदारी ली थी, 1874 उम्मीदवारों ने चुनाव लड़ा था और कुल खर्च लगभग 11 करोड़ रुपए आया था। अब बात करते हैं हाल ही में हुए 17वीं लोकसभा चुनाव के बारे में। इसमें 610 राजनीतिक पार्टियां थी और लगभग 9000 उम्मीदवार। इस चुनाव की खर्च पर नजर डाले तो इसमें तकरीबन 60 हज़ार करोड़ रुपए का खर्च आया था। यहां तक की अभी तक कुछ राजनीतिक दलों ने अपने चुनावी खर्चों की जानकारी भी नहीं दी है।
दूसरी तरफ वन-नेशन-वन-इलेक्शन से प्रशासनिक व्यवस्था और सुरक्षा बलों पर भार कम होगा, सरकार की नीतियों का समय पर कार्यान्वयन सुनिश्चित हो सकेगा और यह भी सुनिश्चित होगा कि प्रशासनिक मशीनरी चुनावी गतिविधियों में फंसे रहने के बजाय विकास की गतिविधियों में लगेंगी।
आ सकती हैं ये चुनौतियां
अगर इसके नुकसान की बात करे तो इसकी राह में सबसे बड़ा रोड़ा है लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के कार्यकाल को समन्वित यानि की एक साथ करने का। तभी दोनों चुनाव निश्चित समय के भीतर हो सकेंगे। इसमें आपको दूसरा सबसे बड़ा चुनौती खुद देश का संविधान ही दिखेगा, लेकिन अगर नेता गण संविधान में कुछ संसोधन जनता के भलाई के लिए करे तो तो यही संविधान रुपी संकट वन-नेशन-वन-इलेक्शन में सबसे बड़ा मददगार साबित हो सकता है। एक और चुनौती वन-नेशन-वन-इलेक्शन के संबंध में ये आ सकती है की इतने बड़े देश में एक साथ इतने सारे EVM और VVPAT मशीनों को कहां तक इस देश की प्रशासन सुरक्षित रख पाती है।