देश में भाषा को लेकर चर्चा हमेशा ही बना रहता है। कभी गृह मंत्री के बयानों से से तो कभी देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बयानों से, तो कभी मुख्य न्यायाधीश धनंजय चंद्रचूड़ के बयान से ये भाषा का मुद्दा देश भर के मीडिया की सुर्ख़ियों में बना ही रहता है। प्रधानमंत्री ने गुजरात में शूल ऑफ़ एक्सीलेंस के उद्घाटन समारोह में कहा था कि कोई भी भाषा खासकर इंग्लिश, किसी भी इंसान के ज्ञान का प्रमाण नहीं होती है। इसी विषय पर और हाल ही में मुख्य न्यायाधीश धनंजय चंद्रचूड़ के टिप्पणी पर डॉ. वेदप्रताप वैदिक ने अपनी सोच को हमारे साथ साझा किया है।
डॉ. वेदप्रताप वैदिक बताते है कि आज दो खबरों ने बरबस मेरा ध्यान खींच लिया। एक तो मुख्य न्यायाधीश धनंजय चंद्रचूड़ के बयान ने और दूसरा गृहमंत्री अमित शाह के बयान ने! दोनों ने वही बात कह दी है, जिसे मैं कई दशकों से कहता चला आ रहा हूं लेकिन देश के किसी न्यायाधीश या नेता की हिम्मत नहीं पड़ती कि भाषा के सवाल पर वे इतनी पुख्ता और तर्कसंगत बात कह दें।
इसका कारण नेताओं और नौकरशाहों की बौद्धिक गुलामी
डॉ. वैदिक आगे कहते है कि चंद्रचूड़ ने ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ की संगोष्ठी में बोलते हुए कहा है कि कोई यदि अच्छी अंग्रेजी बोल सकता है तो इसे उसकी योग्यता का प्रमाण नहीं माना जा सकता और उसकी योग्यता इस बात से भी नापी नहीं जा सकती कि वह व्यक्ति कौन से नामी-गिरामी स्कूल या काॅलेज से पढ़कर निकला है। हमारे देश में इसका एकदम उल्टा ही होता है। इसका एकमात्र कारण हमारे नेताओं और नौकरशाहों की बौद्धिक गुलामी है।
अंग्रेजों की लादी हुई औपनिवेशिक व्यवस्था ने भारत की शिक्षा और चिकित्सा दोनों को चौपट कर रखा है। महर्षि दयानंद, महात्मा गांधी और डाॅ. रामनोहर लोहिया ने इस राष्ट्रीय कलंक के विरुद्ध क्या-क्या नहीं कहा था? इस औपनिवेशिक और पूंजीवादी मनोवृत्ति के खिलाफ हमारे वामपंथियों ने भी जब-तब बोला और लिखा है लेकिन अब देश के सर्वोच्च न्यायाधीश यह बात बोल रहे हैं तो वे सिर्फ बोलते ही न रह जाएं। इस दिशा में कुछ करके भी दिखाएं।
वोट और नोट तो नेताओं की प्राण-वायु है
वेदप्रताप ने देश की अदालत में उपयोग हो रही भाषाओँ पर सवाल उठाते हुए कहा कि, भारत की सभी अदालतों में भारतीय भाषाओं में फैसले और बहस भी हों, ऐसी घोषणा वे (धनंजय चंद्रचूड़) क्यों नहीं करते? वे संसद को सारे कानून हिंदी में बनाने के लिए बाध्य या प्रेरित क्यों नहीं करते? गृहमंत्री अमित शाह ने इस प्रक्रिया का रास्ता दिखा दिया है। उन्होंने तमिलनाडु सरकार से कहा है कि वह अपने स्कूल-कालेजों की पढ़ाई तमिल माध्यम से क्यों नहीं करवाती? अब से लगभग 30 साल पहले जब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री मुलायम सिंह और मैं, चेन्नई में मुख्यमंत्री करूणानिधि से मिलने गए थे तो उनका पहला सवाल यही था कि ‘आप दोनों यहां क्या हम पर हिंदी थोपने के लिए आए हैं?’ तो हमारा जवाब था, ‘हम आप पर तमिल थोपने आए हैं।’ यही बात अब अमित शाह ने बेहतर और रचनात्मक तरीके से कह दी है। दक्षिण भारत के नेता ‘हिंदी लाओ’ और ‘अंग्रेजी हटाओ’ का विरोध तो कर सकते हैं लेकिन ‘तमिल पढ़ाओ’ का विरोध किस मुंह से करेंगे? यदि करेंगे तो उनके वोट-बैंक में चूना लग जाएगा। वोट और नोट तो नेताओं की प्राण-वायु है। उसके बिना उनका दम घुटने लगता है। चंद्रचूड़ और अमित शाह ने उनकी प्राणवायु को स्वच्छ बना दिया है।