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कलयुगी ‘भरत’ को कुर्सी देकर फंस गए ‘राम’ ? थाली में सजाकर नहीं मिलेगी केजरीवाल को सीएम की कुर्सी

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हमारे देश की राजनीति में अजीब सी बिडंबना रही है…शीर्ष पर बैठे नेता को हमेशा ही अपनी कुर्सी के खिसकने का डर सताते रहा है…मोदी, अमित शाह जैसे नेता भी इससे अछूते नहीं रहे हैं. इस डर पर काबू करने के लिए शीर्ष नेताओं की ओर से कई तरह के तिकड़म लगाए जाते हैं, उभर रहे नेताओं के पर कतरे जाते हैं, दिग्गज नेताओं को साइडलाइन कर दिया जाता है. ऐसे लोगों को मुख्यमंत्री बनाया जाता है जो उनके इशारे पर काम करते रहें लेकिन जब कुर्सी सौंपने की बारी आती है तो ऐसे लोगों को चिह्नित किया जाता है, जिससे शीर्ष नेतृत्व को भी खतरा न हो और कुर्सी भी सुरक्षित रहे.

बावजूद इसके कई बार कुर्सी के लिए मारामारी हुई है. नीतीश कुमार और हेमंत सोरेन जैसे नेताओं को भी कुर्सी, किसी और को देनी भारी पड़ चुकी है. केजरीवाल ने काफी सोच-समझ कर आतिशी को दिल्ली की कुर्सी थमाई है लेकिन सीएम बनते ही आतिशी इतनी एक्टिव हो चुकी हैं कि आने वाले समय में क्या होगा इस पर सवाल उठने लगे हैं. ऐसे में सवाल यह है कि क्या आतिशी को सीएम बनाना केजरीवाल के लिए भारी पड़ने वाला है? अभी तक एक बार भी मंदिर नहीं जाने वाली आतिशी, सीएम बनने के बाद मंदिर क्यों जा रही हैं? आतिशी के सीएम बनते ही आम आदमी पार्टी सरकार की कैबिनेट इतनी एक्टिव कैसे हो गई कि नेता, दिल्ली की सड़कों पर उतर कर मुआयना करने लगे ? आखिर क्या है कहानी…

राजनीति में ‘भरोसा’ मतलब अपने पैर पर कुल्हाड़ी

बचपन से ही हम ये कहावत सुनते आ रहे हैं कि राजनीति में कोई किसी का सगा नहीं होता…बेटा-बाप का नहीं होता… दामाद-ससुर का नहीं होता…कोई किसी का नहीं होता. अपने राजनीतिक फायदे के लिए नेता किसी भी रिश्ते की तिलांजलि दे सकते हैं. इसके  कई उदाहरण हम भारतीय राजनीति में भी देख चुके हैं. ऐसे में आतिशी पर भरोसा जताना भी केजरीवाल को भारी पड़ सकता है…वो कैसे चलिए समझते हैं.

आतिशी काफी पढ़ी लिखी नेताओं में से एक हैं या ये भी कहा जा सकता है कि आम आदमी पार्टी की सबसे पढ़ी लिखी नेता हैं. शराब कांड में जब पार्टी का शीर्ष नेतृत्व जेल में था, तो आतिशी और सौरभ भारद्वाज जैसे नेताओं ने सरकार से लेकर जमीन तक सब कुछ संभाला था. सबसे ज्यादा मंत्रालय आतिशी के पास थे और उन्होंने सभी मंत्रालयों के काम बखूबी संभाले. स्वाती मालीवाल केस में आतिशी के एक्टिवनेस ने उन्हें शीर्ष नेतृत्व के और करीब ला दिया. यही कारण था कि जब चुनने की बारी आई तो केजरीवाल ने आतिशी को चुना. सीएम बनने के बाद अपने पहले प्रेस कांफ्रेंस में आतिशी ने बगल में एक कुर्सी खाली रखी, खुद को भरत के समान बताया. इससे पहले सिसोदिया खुद को लक्ष्मण के समान बता चुके हैं. इसका सीधा मतलब यही है कि केजरीवाल, इन लोगों की नजरों में प्रभु श्री राम हैं जो शराब कांड में दिल्ली के तिहाड़ जेल में वनवास पर गए थे.

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आतिशी ने भी अपनाया सॉफ्ट हिंदुत्व फार्मूला

मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक वामपंथ के करीब मानी जाने वाली आतिशी, सीएम बनते ही सीधे Connaught Place के प्राचीन हनुमान मंदिर पहुंच गईं. उससे पहले शायद ही उन्हें कभी मंदिरों में ऐसे दर्शन करते हुए देखा गया था. इसे आम आदमी पार्टी के सॉफ्ट हिंदुत्व वाली छवि को बढ़ाने  के एक प्रयास के रूप में देखा गया. उसके बाद आतिशी ने सरकार की कई ऐसी योजनाओं को मंजूरी दी है, जिसका सीधा लाभ आने वाले समय में Delhi Vidhansabha Chunav 2025 में देखने को मिलेगा. कोरोना वॉरियर्स को 1-1 करोड़ रुपये की सम्मान राशि देने का मामला हो या फिर दिल्ली की महिलाओं को मुख्यमंत्री महिला सम्मान योजना के जरिए 1000 रुपये हर महीने देने का मामला हो, आतिशी के हस्ताक्षर से अब दिल्ली के सारे काम हो रहे हैं.

दिल्ली सरकार के मंत्री आतिशी के इशारे पर काम कर रहे हैं. आज दिल्ली कैबिनेट, सड़कों पर उतरी और स्थिति का आंकलन किया तो य़ह आतिशी के इशारे पर ही किया गया. तमाम राजनीतिक विश्लेषक भी ये मानने लगे हैं कि आतिशी, केजरीवाल की बेहतर उत्तराधिकारी साबित हो सकती हैं. आम आदमी पार्टी के कई नेता भी आतिशी की कार्यशैली की पहले ही तारीफ कर चुके हैं. भले ही आतिशी का राजनीतिक करियर काफी लंबा न रहा हो लेकिन इतने कम समय में पार्टी कैडर्स की पसंद बनना भी किसी उपलब्धि से कम नहीं है. दूसरी ओर पूरी तरह से बेदाग छवि वाली आतिशी को अब दिल्ली का सीएम बनाया गया है तो पार्टी कैडर्स अब उनमें अपनी उम्मीद ढूंढने लगे हैं.

थाली में सजाकर नहीं मिलेगी केजरीवाल को कुर्सी

आम आदमी पार्टी के जो नेता पिछले कुछ हफ्तों तक जमीन पर नहीं उतरे थे…वे अब जमीन पर उतर कर स्थिति का जायजा ले रहे हैं…आने वाले कुछ ही महीनों में दिल्ली में चुनाव है, यह इसका असर भी हो सकता है लेकिन इसके पीछे आतिशी की रणनीति को भी नकारा नहीं जा सकता. इससे इतना तो साफ हो गया है कि आतिशी, शीर्ष नेतृत्व के आगे खुद की तगड़ी दावेदारी पेश करने की तैयारी में हैं. आने वाले चुनाव में वो थाली में सजा कर सीएम की कुर्सी केजरीवाल को परोसेंगी, इसकी संभावना काफी कम नजर आती है.

कलयुग के राम और लक्ष्मण शराब घोटाले के मामले में तिहाड़ की यात्रा के बाद जमानत पर बाहर हैं. ऐसे में कलयुग के भरत पर भी चीजों को लेकर उतना ही भरोसा किया जा सकता है, जितना भरोसा रावण को विभीषण पर था और बाली को सुग्रीव पर था. इससे इतर अगर देखें तो अरविंद केजरीवाल और आम आदमी पार्टी पर दिल्ली की जनता का भरोसा पहले की अपेक्षा थोड़ा डगमगा गया है. पार्टी को 2013 में इसलिए 28 सीटें मिली थी क्योंकि लोगों के मन में ये विश्वास था कि ये बिल्कुल नए तरीके की पार्टी है, जो कांग्रेस और बीजेपी की तरह नहीं है.

2014 लोकसभा चुनाव में सातों सीटें हारने के बाद पार्टी विधानसभा में 67 सीटें जीतने में कामयाब रही. उस समय नायब इमाम की मुस्लिम लोगों से वोट देने की अपील पर पार्टी ने कहा था कि हमें आपके फ़तवे की ज़रूरत नहीं है. ये वो जज्बा था जिसने पार्टी को बिल्कुल अलग दिखाया लेकिन 2018-19 आते ही पार्टी ने सॉफ्ट हिंदुत्व की राह पकड़ ली. हनुमान चालीसा का पाठ हो या फिर मंदिरों का भ्रमण…यह सब 2018-19 के बाद से ही शुरु हुआ. उसके बाद एक एक करके आम आदमी पार्टी की सरकार पर भ्रष्टाचार के कई आरोप लगे, शीर्ष नेता जेल भी गए. यही कारण है कि पार्टी को लेकर लोगों के विश्वास में भी कमी आई है और लोग यह समझ चुकें हैं कि आप पार्टी भी कोई अलग तरह की पार्टी नहीं है.

आतिशी पर ही फोड़ा जाएगा ठीकरा

ऐसे में इसका असर दिल्ली विधानसभा चुनाव 2025 में भी देखने को मिलेगा. पार्टी की सीटें कम भी होती हैं तो उसका ठीकरा केजरीवाल और सिसोदिया पर नहीं बल्कि आतिशी पर ही फोड़ा जाएगा लेकिन पार्टी अगर रिकार्ड मार्जिन से जीतती है तो उसका क्रेडिट आतिशी को नहीं मिलेगा, आतिशी भी यह बात बखूबी समझती हैं. आपको बता दें कि पूरी की पूरी आम आदमी पार्टी अरविंद केजरीवाल, मनीष सिसोदिया और संजय सिंह के इर्द गिर्द घूमती है. इन्हीं में इतना पावर है कि विधायकों को इधर उधर कर सकें. ऐसे में आने वाले समय में दिल्ली में भी नीतीश कुमार और जीतन राम मांझी या हेमंत सोरेन और चंपई सोरेन जैसा कांड होगा, या आतिशी अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओ को दफन कर देंगी, इस पर सभी की नजरें टिकी हुई है.

और पढ़ें: BJP के गले में फंसी ‘माफीवीर’ कंगना? न घर की रहीं न घाट के….

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