22 October ki Murli in Hindi – प्रजापति ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय में रोजाना मुरली ध्यान से आध्यात्मिक संदेश दिया जाता है और यह एक आध्यात्मिक सन्देश है. वहीं इस पोस्ट के जरिये हम आपको 22 अक्टूबर 2023 (22 October ki Murli) में दिये सन्देश की जानकारी देने जा रहें हैं.
“डायमण्ड जुबली वर्ष में विशेष अटेन्शन देकर समय और संकल्प के खजाने को जमा करो”
आज त्रिमूर्ति रचता शिव बाप बच्चों को तीन बधाइयाँ दे रहे हैं। बच्चे बाप को बधाई देने आये हैं, तो बाप रिटर्न में तीन बधा-इयाँ दे रहे हैं। एक शिव जयन्ती की, दूसरी डायमण्ड जुबली की और तीसरी वर्तमान समय उमंग-उत्साह से सेवा करने की बधाई। तो तीन बधाइयाँ चारों ओर के बच्चों को बापदादा दे रहे हैं। बाप के पास सबके दिलों के उमंग-उत्साह के सेवा के समाचार पहुँचते रहते हैं। ये अलौकिक जयन्ती सारे कल्प में नहीं होती है क्योंकि सारे कल्प में चाहे देव आत्मा हो, चाहे महात्मा हो, चाहे साधारण आत्मायें हो लेकिन आत्मायें, आत्मा की जयन्ती मनाते हैं। और इस संगम पर आप श्रेष्ठ आत्मायें किसकी जयन्ती मनाने आये हो? परम आत्मा की और परम आत्मा बाप बच्चों की जयन्ती मनाते हैं। सतयुग-त्रेता में भी परम आत्मा आपकी जयन्ती नहीं मनायेंगे वा आप परमात्मा की जयन्ती नहीं मनायेंगे। तो कितने पद्म-पद्म-पद्म गुणा भाग्यवान आत्मा हो। ऐसे कभी अपने श्रेष्ठ भाग्य को स्वप्न में भी सोचा होगा? नहीं सोचा? लेकिन आज साकार रूप में मना रहे हैं। तो खुशी है ना! देखो चाहे देश वाले, चाहे विदेश वाले, चाहे मधुबन वाले, जो भी इस ग्रुप में बैठे हैं, कितना लक्की हैं! अन्दर क्या गीत गाते हो? वाह मेरा भाग्य! और बाप भी गीत गाते हैं वाह बच्चों का भाग्य! विशेष सेवा का ग्रुप बैठा है ना, सब तरफ के विशेष हैं ना! तो विशेष सेवा का विशेष प्रत्यक्षफल प्राप्त करने वाली आत्मायें हो। तो बाप भी ऐसे श्रेष्ठ बच्चों को देख हर्षित होते हैं। बच्चे ज्यादा हर्षित होते हैं या बाप होते हैं? दोनों। या बाप ज्यादा होता है? आप ज्यादा होते हो। अच्छा।
आज बापदादा चारों ओर के सेवाधारी डायमण्ड की माला को देख रहे हैं। आप सभी माला में हो ना? बाप के गले में डायमण्ड बन चमकने वाले माला के दाने हो या और कोई है? आप ही हो और नहीं? लोग कहते हैं कि 108 की माला लेकिन बापदादा के गले में आप सभी डायमण्ड्स की कितनी लम्बी माला है? 108 तो आप नीचे बैठे हुए हो जायेंगे। पीछे वाले भी हो ना? पहले पीछे वाले। देखो ये भी त्याग का प्रत्यक्ष फल है कि बापदादा पीछे वालों को ज्यादा मुबारक देते हैं। और उससे ज्यादा नीचे वालों को।
बापदादा हर एक बच्चे की विशेषता को देखते हैं। चाहे सम्पूर्ण नहीं बने हैं, पुरुषार्थी हैं लेकिन ऐसा एक भी बाप का बच्चा नहीं है जिसमें कोई विशेषता नहीं हो। सबमें विशेषता है। सबसे पहली विशेषता तो कोटो में कोई के लिस्ट में तो हैं ना। और विशेषता ये है कि बड़े-बड़े तपस्वी महान् आत्मायें, 16108 जगत गुरू, चाहे शास्त्रवादी हैं, चाहे महामण्डलेश्वर हैं लेकिन बाप को नहीं जाना और बाप के सभी बच्चों ने बाप को तो जान लिया ना। तो बाप को जानना यह कितनी बड़ी विशेषता है। दिल से ‘मेरा बाबा’ तो कहते हैं ना। मेरा कह कर अधिकारी तो बन गये ना। तो इसको क्या कहेंगे? जिसने बाप को परख लिया, पहचान लिया, तो पहचानना ये भी बुद्धि की विशेषता है, परखने की शक्ति है। तो आप सभी के परखने की शक्ति श्रेष्ठ है। अच्छा, आज विशेष मनाने आये हो ना? आज मनाने का दिन है या आज भी सुनने का दिन है? सुनना भी है? अच्छा।
तो शिवरात्रि कहते हैं लेकिन आपके लिए अभी क्या है? आपके लिए रात्रि नहीं है तो क्या है? अमृतवेला है? आप तो रात्रि से निकल गये या थोड़ी-थोड़ी रात्रि अभी है? छुट्टी ले गई? किसी भी प्रकार का अंधकार आता है कि खत्म हो गया? अमृतवेला सदा वरदान का समय है तो आपको रोज़ वरदान मिलता है ना? तो आप कहेंगे बाप आता रात्रि में है लेकिन हमारे लिये अमृतवेला गोल्डन मॉर्निंग, डायमण्ड मॉर्निंग हो गई। तो ऐसे वरदानी स्वरूप अपना देखते हो? माया वरदान भुला तो नहीं देती? आती है माया? कभी-कभी तो आती है? माया तो लास्ट घड़ी तक आयेगी। ऐसे नहीं जायेगी। लेकिन माया का काम है आना और आपका काम है दूर से भगाना। आ जावे फिर भगाओ, ये नहीं। ये टाइम अभी समाप्त हुआ। माया आवे और आपको हिलावे फिर आप भगाओ, टाइम तो गया ना! लेकिन साइलेन्स के साधनों से आप दूर से ही पहचान सकते हो कि ये माया है। इसमें भी टाइम वेस्ट नहीं करो और माया भी देखती है ना कि चलो आने तो देते हैं ना, तो आदत पड़ जाती है आने की। जैसे कोई पशु को, जानवर को अपने घर में आने की आदत डाल दो फिर तंग होकर भगाओ भी लेकिन आदत तो पड़ जाती है ना! और बाप ने सुनाया था कि कई बच्चे तो माया को चाय-पानी भी पिलाते हैं। चाय-पानी कौन सी पिलाते हो? पता है ना? क्या करूँ, कैसे करूँ, अभी तो पुरुषार्थी हूँ, अभी तो सम्पूर्ण नहीं बने हैं, आखिर हो जायेंगे – ये संकल्प चाय-पानी हैं। तो वो देखती है चाय-पानी तो मिलती है। किसी को भी अगर चाय-पानी पिलाओ तो वो जायेगा कि बैठ जायेगा? तो जब भी कोई परिस्थिति आती है तो क्यों, क्या, कैसे, कभी-कभी तो होता ही है, अभी कौन पास हुआ है, सबके पास है – ये है माया की खातिरी करना। कुछ नमकीन, कुछ मीठा भी खिला देते हो। और फिर क्या करते हो? फिर तंग होकर कहते हो अभी बाबा आप ही भगाओ। आने आप देते हो और भगाये बाबा, क्यों? आने क्यों देते हो? माया बार-बार क्यों आती है? हर समय, हर कर्म करते, त्रिकालदर्शी की सीट पर सेट नहीं होते हो। त्रिकालदर्शी अर्थात् पास्ट, प्रेजेन्ट और फ्युचर को जानने वाले। तो क्यों, क्या नहीं करना पड़ेगा। त्रिकालदर्शी होने के कारण पहले से ही जान लेंगे कि ये बातें तो आनी हैं, होनी हैं, चाहे स्वयं द्वारा, चाहे औरों द्वारा, चाहे माया द्वारा, चाहे प्रकृति द्वारा, सब प्रकार से परिस्थितियाँ तो आयेंगी, आनी ही हैं। लेकिन स्व-स्थिति शक्तिशाली है तो पर-स्थिति उसके आगे कुछ भी नहीं है। पर-स्थिति बड़ी या स्व-स्थिति बड़ी? या कभी स्व-स्थिति बड़ी हो जाती, कभी पर-स्थिति? तो इसका साधन है – एक तो आदि-मध्य-अन्त तीनों काल चेक करके, समझ कर फिर कुछ भी करो। सिर्फ वर्तमान नहीं देखो। सिर्फ वर्तमान देखते हो तो कभी परिस्थिति ऊंची हो जाती और कभी स्व-स्थिति ऊंची हो जाती। दुनिया में भी कहते हैं पहले सोचो फिर करो। नहीं तो जो सोच कर नहीं करते तो पीछे सोचना पश्चाताप् का रूप हो जाता है। ऐसे नहीं करते, ऐसे करते, तो पीछे सोचना अर्थात् पश्चाताप् का रूप और पहले सोचना ये ज्ञानी तू आत्मा का गुण है। द्वापर-कलियुग में तो अनेक प्रकार के पश्चाताप् ही करते रहे हो ना? लेकिन अब संगम पर पश्चाताप् करना अर्थात् ज्ञानी तू आत्मा नहीं है। ऐसा अपने को बनाओ जो अपने आपमें भी, मन में एक सेकेण्ड भी पश्चाताप् नहीं हो।
तो इस डायमण्ड जुबली में विशेष सारे दिन में एक समय और दूसरा संकल्प – इन दो खजानों पर अटेन्शन रखना। वैसे खजाने तो बहुत हैं लेकिन विशेष इन दो खजानों के ऊपर अटेन्शन देना है। हर दिन संकल्प श्रेष्ठ, शुभ कितना जमा किया? क्योंकि पूरे कल्प के लिये जमा करने की बैंक अभी खुलती है। सतयुग में ये बैंक जमा की बन्द हो जायेगी। ये बैंक भी नहीं होगी, दूसरी बैंक भी नहीं होगी। इतना धन आपके पास होगा जो किसी से भी कुछ लेने की आवश्यकता नहीं होगी। बैंक में क्यों रखते हैं? एक तो सेफ्टी और दूसरा ब्याज मिलता है। कई बहुत होशियार होते हैं जो ब्याज से ही चलते रहते हैं। और इस समय तो अगर ऐसे होशियार हैं तो अच्छे हैं, जमा करते हैं ना। लेकिन ब्याज किस तरफ लगाते हैं वो देखना है। तो सतयुग में न ये बैंक होगी, न रूहानी खजाने जमा करने की बैंक होगी। दोनों बैंक नहीं होगी। इस समय एक का पद्मगुणा करके देने की बैंक है लेकिन एक जमा करेंगे तब पद्म मिलेगा, ऐसे नहीं। हिसाब है। तो डायमण्ड जुबली में सच्चे डायमण्ड बनना ही है, ये तो पक्का है ना? कि कभी संकल्प आता है कि पता नहीं बन सकेंगे या नहीं? पता नहीं, तो नहीं आता? क्या भी हो, त्याग करना पड़े, तपस्या करनी पड़े, निर्मान बनना पड़े, कुछ भी हो जाये, बनना जरूर है। है? बोलो, हाँ जी या ना जी? (हाँ जी) देखना, हाँ जी कहना तो बहुत सहज है। हाँ जी बनना इसमें अटेन्शन देना पड़ेगा। पहला-पहला त्याग ये ‘मैं’ शब्द है। ये ‘मैं’ शब्द है बहुत पुराना लेकिन आजकल ये बहुत रॉयल रूप का हो गया है। ये ‘मैं’ शब्द समाप्त हो भाषा में भी ‘बाबा-बाबा’ शब्द आ जाये। कहने में देखो साधारण बात है, मैं योग्य हूँ ना, तो योग्य हूँ तो सैलवेशन या सेवा उसी प्रमाण मिलनी चाहिये। मैं योग्य हूँ, मैं करती हूँ, तो ये राइट है? करते तो हो ना फिर क्यों नहीं कहें करती तो हूँ! मैं रांग हूँ, राइट हूँ, कहने में तो आयेगा ना मैं करती हूँ!… आप नहीं करती हो? करता बाबा है! वो बाप है करावनहार लेकिन करनहार तो आप हो ना। तो ‘मैं’ कहना रांग क्यों हुआ? वैसे जब ‘मैं’ शब्द भी प्रयोग करते हो तो वास्तव में ‘मैं’ शब्द किससे लगता है? आत्मा से या शरीर से? मैं कौन? आत्मा है ना, शरीर तो नहीं है? तो अगर देही अभिमानी बन, मैं आत्मा हूँ – इस स्मृति से ‘मैं’ शब्द यूज़ करते हैं तो राइट है। लेकिन ‘मैं’ शब्द बॉडी कॉन्सेस के रूप में अगर यूज़ करते हैं तो रांग है। सारे दिन में ये ‘मैं’ शब्द बहुत आता है और आना ही है। तो अभ्यास करो – जब भी ‘मैं’ शब्द कहते हो तो मैं कौन? वास्तव में ‘मैं’ है ही आत्मा। शरीर को ‘मेरा’ कहते हैं। तो ‘मैं’ शब्द अगर आत्म अभिमानी बनकर कहेंगे तो आत्मा को बाप स्वत: याद है। कहने की भी जरूरत नहीं पड़ेगी। हूँ ही मैं आत्मा – ये अभ्यास डाल दो। जैसे ये उल्टा अभ्यास पड़ गया है और नेचुरल हो गया है कि जब ‘मैं’ शब्द बोलते हो तो अपना नाम-रूप स्मृति में आ जाता है। मैं कौन हूँ? मैं फलानी हूँ। यह नेचुरल हो गया है ना? सोचना नहीं पड़ता है। तो ये जो उल्टे भाव से ‘मैं’ शब्द यूज़ करते हो तभी रिज़ल्ट में मेहनत ज्यादा और प्राप्ति कम होती। कई बच्चे कहते हैं हम तो बहुत सेवा करते हैं, बहुत मेहनत करते हैं लेकिन प्राप्ति इतनी नहीं होती है। उसका कारण क्या? वरदान सबको एक है, 60 साल वालों को भी एक तो एक मास वाले को भी एक है। खजाने सभी को एक जैसे हैं। पालना सबको एक जैसी है, दिनचर्या, मर्यादा सबके लिए एक जैसी है। दूसरी-दूसरी तो नहीं है ना! ऐसे तो नहीं, विदेश की मर्यादायें और हैं, इण्डिया की और हैं, ऐसे तो नहीं? थोड़ा-थोड़ा फर्क है? नहीं है? तो जब सब एक है फिर किसको सफलता मिलती है, किसको कम मिलती है – क्यों? कारण? बाप मदद कम देता है क्या? किसको ज्यादा देता हो, किसको कम, ऐसे है? नहीं है। फिर क्यों होता है? मतलब क्या हुआ? अपनी गलती है। या तो बॉडी-कॉन्सेस वाला मैं-पन आ जाता है, या कभी-कभी जो साथी हैं उन्हों की सफलता को देख ईर्ष्या भी आ जाती है। उस ईर्ष्या के कारण जो दिल से सेवा करनी चाहिये, वो दिमाग से करते हैं लेकिन दिल से नहीं। और फल मिलता है दिल से सेवा करने का। कई बार बच्चे दिमाग यूज़ करते हैं लेकिन दिल और दिमाग दोनों मिलाके नहीं करते। दिमाग मिला है उसको कार्य में लगाना अच्छा है लेकिन सिर्फ दिमाग नहीं। जो दिल से करते हैं तो दिल से करने वाले के दिल में बाप की याद भी सदा रहती है। सिर्फ दिमाग से करते हैं तो थोड़ा टाइम दिमाग में याद रहेगा – हाँ, बाबा ही कराने वाला है, हाँ बाबा ही कराने वाला है लेकिन कुछ समय के बाद फिर वो ही मैं-पन आ जायेगा इसलिए दिमाग और दिल दोनों का बैलेन्स रखो।
तो सुनाया डायमण्ड जुबली में क्या करना है? विशेष बचत का खाता जमा करो। ऐसे नहीं, कि सारा दिन मेरे से कोई ऐसी बात नहीं हुई, किसको दु:ख नहीं दिया, किसी से कुछ खिटखिट नहीं हुई अर्थात् गँवाया नहीं। ये तो अच्छी बात है गँवाया नहीं लेकिन जमा किया? सेवा भी की तो अपने रूहानियत से सेवा में सफलता प्राप्त की? वा सफलता जमा की? तो सेवा में समय लगाया – ये तो अच्छी बात की ना लेकिन सेवा किस विधि से की? कई कहते हैं हम तो सारा दिन इतने सेवा में बिज़ी रहते हैं जो अपना ही नहीं पता पड़ता। बिज़ी रहते हैं यह बहुत अच्छा। लेकिन सेवा का प्रत्यक्षफल जमा हुआ? कि सिर्फ मेहनत की? सेवा में समय 8 घण्टा लगाया लेकिन 8 ही घण्टे सेवा के जमा हुए? समय जमा हुआ? कि आधा जमा हुआ, आधा भागदौड़ में, सोचने में गया? श्रेष्ठ संकल्प, शुभ भावना, शुभ कामना के संकल्प जमा होते हैं। तो सारे दिन में जमा का खाता नोट करो। जब जमा का खाता बढ़ता जायेगा तो स्वत: ही डायमण्ड बन ही जाना है। अभी भी समय और संकल्प – ना अच्छे में, ना बुरे में होते हैं। तो बुरे में नहीं हुआ ये तो बच गये लेकिन अच्छे में जमा हुआ? समझा? समय को, संकल्प को बचाओ, जितना अभी बचत करेंगे, जमा करेंगे तो सारा कल्प उसी प्रमाण राज्य भी करेंगे और पूज्य भी बनेंगे। चाहे द्वापर से आप साकार रूप में तो गिरती कला में आते हो लेकिन आपका जमा किया हुआ खाता आपके जड़ चित्रों की पूजा कराता है। तो सब ये नोट करना तो मालूम पड़ जायेगा कि व्यर्थ वा साधारण समय कितना होता है? साधारण संकल्प कितने होते हैं? लेकिन एक अटेन्शन रखना – अगर मानो आपका आज के दिन जमा का खाता बहुत कम हुआ तो कम देख करके दिलशिकस्त नहीं होना। और ही समझो कि अभी भी हमको चांस है जमा करने का। अपने को उमंग-उत्साह में लाओ। अपने आपसे रेस करो, दूसरे से नहीं। अपने आपसे रेस करो कि आज अगर 8 घण्टे जमा हुए तो कल 10 घण्टे हो। दिल-शिकस्त नहीं होना क्योंकि अभी फिर भी जमा करने का समय है। अभी टू लेट का बोर्ड नहीं लगा है। फाइनल रिजल्ट का टाइम अभी एनाउन्स नहीं हुआ है। जैसे लौकिक में पेपर की डेट फाइनल हो जाती है तो अच्छे पुरुषार्थी क्या करते हैं? दिल-शिकस्त होते हैं या पुरुषार्थ में आगे बढ़ते हैं? तो आप भी दिलशिकस्त नहीं बनना। और ही उमंग-उत्साह में आकरके दृढ़ संकल्प करो कि मुझे अपने जमा का खाता बढ़ाना ही है। समझा? अच्छा।
चारों ओर के जयन्ती की मुबारक देने वाले बच्चों को, सदा बाप के साथ-साथ रहने वाले कम्बाइण्ड रूपधारी बच्चों को, सदा उमंग-उत्साह के द्वारा स्वयं को और औरों को आगे बढ़ाने वाले बच्चों को, चारों ओर के सेवा में आगे बढ़ने वाले सच्चे सेवाधारी बच्चों को बापदादा की पद्म-पद्म-पद्म गुणा मुबारक हो। याद-प्यार के साथ बाप भी बच्चों की मुबारक, याद-प्यार स्वीकार कर रहे हैं। देख रहे हैं कि सभी तरफ मुबारक-मुबारक के दिल के गीत बज रहे हैं। तो ऐसे मुबारक लेने और मुबारक देने के दोनों के संगम की विशेष याद-प्यार और नमस्ते।
वरदान:-हर बात में कल्याण समझकर अचल, अडोल महावीर बनने वाले त्रिकालदर्शी भव
कोई भी बात एक काल की दृष्टि से नहीं देखो, त्रिकालदर्शी होकर देखो। क्यों, क्या के बजाए सदा यही संकल्प रहे कि जो रहा है उसमें कल्याण है। जो बाबा कहे वह करते चलो, फिर बाबा जाने बाबा का काम जाने। जैसे बाबा चलाये वैसे चलो तो उसमें कल्याण भरा हुआ है। इस निश्चय से कभी डगमग नहीं होंगे। संकल्प और स्वप्न में भी व्यर्थ संकल्प न आयें तब कहेंगे अचल, अडोल महावीर।स्लोगन:-तपस्वी वह है जो श्रीमत के इशारे प्रमाण सेकण्ड में न्यारा और प्यारा बन जाये।
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