भारत में पुलिस उत्पीड़न से निपटने के क्या उपाय हैं?

पुलिस परेशान करे तो क्या करे, Police pareshan kare to kya kare
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पुलिस परेशान करे तो क्या करे – भारत के कानून में जनता पर सिविल और आपराधिक दो तरह के दायित्व सौंपे गए हैं. आपराधिक मामले में सीधे राज्य द्वारा कोई प्रकरण चलाया जाता है और सिविल मामलों में व्यथित व्यक्ति को अपना प्रकरण स्वयं ही चलाना होता है. कई मौके ऐसे होते हैं जहां पर कोई व्यक्ति किसी व्यक्ति पर झूठे आधारों पर सिविल प्रकरण अदालत में दर्ज़ करवा देता है जिससे प्रतिवादी को परेशान किया जा सके. भारत के कानून में यह ज़रूरी नहीं है कि कोई भी सिविल मुकदमा शुरू से लेकर अंत तक पक्षकारों को लड़ना ही पड़े. सिविल मुकदमे काफी जटिल और तार्किक होते हैं इसलिए इन मुकदमों के डिसाइड होते होते वर्षों वर्ष भी लग जाते हैं.

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फिर ऐसे मुकदमे एक अदालत से डिसाइड होते हैं तो हारने वाला पक्ष ऊपर की अदालत में अपील या रिवीजन जो भी स्थिति हो लगा देता है. ऐसी परिस्थिति में यदि किसी व्यक्ति पर नाहक़ ही कोई मुकदमा लगा दिया जाए तो उसे काफ़ी परेशानी का सामना करना पड़ सकता है.

जैसे किसी व्यक्ति के किसी मकान या दुकान पर कोई भी व्यक्ति यह दावा कर दे कि उक्त मकान या दुकान उसके स्वामित्व के हैं और जो व्यक्ति उस मकान या दुकान में क़ाबिज़ है उसके पास मालिकाना हक नहीं है तब उस मकान या दुकान के मालिक के लिए परेशानी हो जाएगी. हालांकि सिविल कानून पूरी तरह दस्तावेज पर चलता है,यदि किसी व्यक्ति के पास कोई दस्तावेज है तो ही वह व्यक्ति अदालत के समक्ष कोई मुकदमा ला सकता है.

सिविल प्रॉसिजर कोड, 1908 के प्रावधान

सीपीसी के ऑर्डर 7 रूल 11 में ऐसे प्रावधान है जो किसी भी झूठे और तथ्यहीन मुकदमे को पहली नज़र में ही सीधे खारिज़ कर सकती है, इसके लिए संपूर्ण ट्रायल की कोई आवश्यकता नहीं होती है. अर्थात ऐसे प्रकरणों में कोई दस्तावेज एग्जीबिट या गवाहों के कथन इत्यादि कोई कार्य नहीं होता है एवं प्रकरण को सीधे खारिज़ कर दिया जाता है. आदेश 7 नियम 11 का आवेदन प्रतिवादी के द्वारा प्रस्तुत किया जाता है. प्रतिवादी वह होता है जिसके विरुद्ध अदालत में मुकदमा लगाया गया है.

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पुलिस परेशान करे तो क्या करे – प्रतिवादी अदालत के समक्ष ऐसा आवेदन लगाता है कि उसके विरुद्ध जो मुकदमा दर्ज किया गया है वह फ़र्ज़ी दस्तावेज़ों के आधार पर दर्ज़ किया गया है एवं प्रकरण में आधारहीन तथ्य हैं जिनका वास्तविकता से कोई लेना देना नहीं है. हालांकि यह ज़रूरी नहीं है कि अदालत ऐसे आवेदन को सुनकर सभी सिविल मुकदमे सीधे ही खारिज़ कर देती है. यदि किसी केस में ऐसी परिस्थिति होती है कि तथ्य विद्यमान हैं तब अदालत प्रकरण को पूरा सुनती है.

इसलिए किया गया है ये प्रावधान

यदि अदालत को लगता है कि कोई तथ्य नहीं है और दस्तावेजों में कोई सत्यता प्रतीत नहीं हो रही है तब अदालत आदेश 7 नियम 11 के अंतर्गत दिए गए आवेदन को स्वीकार करते हुए मुकदमे को पहली सीढ़ी पर ही खारिज़ कर देती है. सीपीसी में यह प्रावधान इसलिए किए गए हैं कि किसी भी व्यक्ति के विरुद्ध कोई नाहक़ मुकदमा अदालत के समक्ष प्रस्तुत नहीं किया जाए.

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कोई मुकदमा योग्य एवं मज़बूत दस्तावेजों के आधार पर प्रस्तुत किया जाए जिनमें कहीं न कहीं कोई सत्यता हो. एक बात ध्यान रखने योग्य है कि अदालत के समक्ष ऐसा आवेदन वाद विषय तय होने के पहले दाख़िल किया जाना चाहिए. यदि अदालत वाद विषय तय कर देती है तब यह आवेदन का कोई महत्व नहीं रह जाता है.

झूठी या अवैध गिरफ्तारी के उपाय

हमारे संविधान में अनुच्छेद 19, अनुच्छेद 20 और अनुच्छेद 21 के तहत व्यक्तिगत स्वतंत्रता और स्वतंत्रता के अधिकार की गारंटी दी गई है. “बंदी प्रत्यक्षीकरण (हेबीएस कार्पस)” का रिट एक अवैध या झूठी गिरफ्तारी या पुलिस अधिकारियों द्वारा लंबे समय तक हिरासत में रखने के लिए सुनहरा उपाय है.

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भारत का सर्वोच्च न्यायालय और सभी राज्यों के उच्च न्यायालय क्रमशः अनुच्छेद 32 और अनुच्छेद 226 के तहत “बंदी प्रत्यक्षीकरण” के इस रिट को जारी कर सकते हैं. संविधान का अनुच्छेद 21 कहता है कि “किसी भी व्यक्ति को उसके जीवन या व्यक्तिगत स्वतंत्रता से कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही वंचित किया जाएगा.”

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