17 अक्टूबर 2023 को सुप्रीम कोर्ट की 5 जजों की संविधान पीठ ने अपने फैसले में समलैंगिक (Homosexuality) विवाह को वैध बनाने से इनकार कर दिया था। कोर्ट ने कहा था कि इस पर कानून बनाना संसद का काम है। न्यायालय के इस फैसले से समलैंगिक समुदाय के लोगों को बड़ा झटका लगा है। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के कारण देश में समलैंगिकता और समलैंगिक विवाह पर अभी भी बहस जारी है। लेकिन आपको जानकर हैरानी होगी कि भारतीय संविधान के निर्माता डॉ. भीमराव अंबेडकर उसी विषय पर खुलकर बोलते थे जिस पर भारत में लोग बोलने से कतराते हैं। वे समलैंगिक संबंधों को ‘प्राकृतिक’ मानते थे। उनका मानना था कि ऐसी इच्छाएं रखना कोई गलत बात नहीं है। हर किसी को अपने तरीके से खुशी पाने का अधिकार है।
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समलैंगिकता को लेकर जब डॉ.अम्बेडकर ने की पैरवी
1934 की बात है जब डॉ. बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर एक अनुभवी वकील के तौर पर “समाज स्वास्थ्य” नामक पत्रिका का बचाव करने के लिए सामने आए। दरअसल, 20वीं सदी की शुरुआत में महाराष्ट्र के रहने वाले रघुनाथ धोंडो कर्वे ने “समाज स्वास्थ्य” नामक पत्रिका प्रकाशित की थी। कर्वे ने यौन शिक्षा, परिवार नियोजन, नग्नता और नैतिकता जैसे विषयों पर निडरता से लिखा, जिन्हें उस समय भारतीय समाज में बेहद अपरंपरागत और वर्जित माना जाता था। इसी बीच, 1931 में कर्वे अपने एक लेख “व्यभिचार का प्रश्न” को लेकर पुणे के एक रूढ़िवादी समूह द्वारा शुरू किए गए कानूनी विवाद में उलझ गए। इसके बाद उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और दोषी पाए जाने पर उन पर 100 रुपये का जुर्माना लगाया गया। 1934 में जब कर्वे ने हाईकोर्ट में अपील की तो उनका मामला जज इंद्रप्रस्थ मेहता के सामने पेश किया गया, जिन्होंने आखिरकार उनकी अपील खारिज कर दी कर्वे को बैरिस्टर बी.आर. अंबेडकर के रूप में एक सहयोगी मिला जो उच्च न्यायालय में उनका मामला लड़ने को तैयार थे।
वंचितों के लिए वकालत करने वाले एक राष्ट्रीय नेता के रूप में अंबेडकर की छवि मजबूत हो चुकी थी। यूरोप और अमेरिका में अंबेडकर के व्यापक अध्ययन और शोध ने उन्हें उदार परंपराओं और आधुनिक पश्चिमी विचारों से परिचित कराया। इन अनुभवों ने उन्हें तर्कवादी विचारों से परिचित कराया जो कर्वे के लेखन की विषय-वस्तु से मेल खाते थे, जिससे उन्हें ऐसे विषय से जुड़ने में मदद मिली जिसे अन्य प्रमुख नेता उठाने में झिझकते थे।
बॉम्बे हाई कोर्ट में बाबा साहब ने कहीं ये बातें
अदालती मामले का सार इस सवाल के इर्द-गिर्द घूमता था कि क्या यौन मामलों के बारे में लिखना अश्लील माना जाना चाहिए। कर्वे के जवाब सीधे-सादे थे, जो पाठकों द्वारा पूछे गए वास्तविक सवालों को संबोधित करते थे। अंबेडकर रूढ़िवादी भावनाओं को खुश करने के लिए इसे चुनौती देने के सरकार के फैसले से हैरान थे। उन्होंने एक सीधा सवाल पूछा: “अगर ‘सामाजिक स्वास्थ्य’ के दायरे में यौन शिक्षा और समलैंगिक संबंध शामिल हैं, और एक आम पाठक इन विषयों के बारे में जानकारी चाहता है, तो उन सवालों के जवाब क्यों नहीं दिए जाने चाहिए?” कर्वे को जवाब देने से रोकना प्रभावी रूप से पत्रिका को बंद करने के बराबर होगा।
इस मामले पर 28 फरवरी से 24 अप्रैल, 1934 तक बॉम्बे हाई कोर्ट में जस्टिस मेहता के समक्ष बहस हुई। कर्वे के खिलाफ प्राथमिक आरोप यौन विषयों पर चर्चा के माध्यम से अश्लीलता फैलाना था। अंबेडकर के शुरुआती तर्क में इस बात पर जोर दिया गया कि यौन मामलों के बारे में लिखना स्वचालित रूप से अश्लील नहीं कहा जा सकता, क्योंकि सभी यौन विषयों को इस तरह के वर्गीकरण की आवश्यकता नहीं होती।
न्यायाधीश ने ऐसे स्पष्ट प्रश्नों के प्रकाशन पर चिंता व्यक्त की और उनका उत्तर देने की आवश्यकता जताई। जवाब में, अंबेडकर ने इस बात पर जोर दिया कि ज्ञान विकृति का प्रतिकारक है और जोर देकर कहा कि कर्वे को इन सवालों का जवाब देना चाहिए। उन्होंने इस विषय पर आधुनिक समाज के मौजूदा साहित्य और शोध का भी हवाला दिया, जिसमें समलैंगिकता पर हैवलॉक एलिस का काम भी शामिल है, जिसमें कहा गया है कि लोगों में ऐसी इच्छाएँ होना स्वाभाविक रूप से गलत नहीं है। उन्हें अपने तरीके से खुशी पाने का अधिकार है।
अंततः आर.डी. कर्वे और डॉ. बी.आर. अंबेडकर 1934 की कानूनी लड़ाई हार गए, जिसमें कर्वे पर अश्लीलता के लिए 200 रुपये का जुर्माना लगाया गया।
हालांकि इस केस को लड़कर बाबा साहब सिर्फ अभिव्यक्ति की आजादी का समर्थन करना चाहते थे। क्योंकि उनकी नजर में हर व्यक्ति को खुश रहने का अधिकार है, किसी व्यक्ति को ऐसा कुछ करने से रोकना गलत होगा जिससे उसे खुशी मिलती हो। वहीं अगर समलैंगिकता की बात करें तो बाबा साहब ने कभी समलैंगिकता का विरोध नहीं किया और न ही इसके खिलाफ कभी कुछ कहा। उनके हिसाब से समलैंगिकता सही है।
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