डॉ. भीम राव अंबेडकर की उपलब्धियों की जितनी भी तारीफ की जाए कम है। लेकिन आज का युवा उनके योगदान से अनजान है। जिसके बारे में आज हम आपको बताएंगे। वैसे तो बाबा साहेब अंबेडकर बेहद निडर वक्ता थे, अपनी बात कहने में उन्होंने कभी संकोच नहीं किया। यहां तक कि अपने जीवनकाल में जब अंबेडकर ने दलितों और समाज के लिए आवाज उठाई तो उनकी तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से बहस भी हुई थी। दरअसल पहली कैबिनेट का हिस्सा होने के बावजूद भी अंबेडकर के ज्यादातर कांग्रेस नेताओं से रिश्ते उतार-चढ़ाव भरे रहे। गांधी के साथ अंबेडकर के विवादित रिश्ते के बारे में काफी कुछ लिखा गया है। चलिये आपको विस्तार से बताते हैं अंबेडकर के रेडिकल पक्ष के बारे में विस्तार से।
और पढ़ें: Annihilation of Caste: डॉ भीम राव अंबेडकर की इस किताब के महत्व से आप हैं अनजान, यहाँ पढ़ें महत्व
लंबे समय से चली आ रही औपनिवेशिक सत्ता से मुक्ति और साथ ही नए स्वतंत्र राष्ट्र को स्वतंत्रता आंदोलन के नेताओं को सौंपना क्रांतिकारी संभावनाओं का दौर था। भारत में 21वीं सदी धीरे-धीरे अंबेडकर की सदी के रूप में स्थापित हो रही है। उनके व्यक्तित्व और कृतित्व के नए आयाम विकसित हो रहे हैं। उनके व्यक्तित्व का एक महत्वपूर्ण पहलू एक मजदूर और किसान नेता का है।
बहुत कम लोग जानते हैं कि डॉ. अंबेडकर ने स्वतंत्र श्रमिक पार्टी का गठन किया, इसके टिकट पर चुने गए और 7 नवंबर 1938 को एक लाख से अधिक श्रमिकों की हड़ताल का नेतृत्व किया। हड़ताल के बाद, उन्होंने भीड़ को संबोधित किया और श्रमिकों से मौजूदा विधान परिषद में अपने स्वयं के सदस्यों को चुनकर नियंत्रण लेने का आग्रह किया। हालांकि यह तो बात हुई उनके समाज सुधारक होने की, अब बात करते हैं कांग्रेस और अंबेडकर की।
कांग्रेस अंबेडकर को संविधान सभा में प्रवेश से रोकना चाहती थी
यहां तक कि जब संविधान निर्माण की प्रक्रिया स्वयं दबावों और प्रति-दबावों से गुजर रही थी, जिसमें रेडिकल परिवर्तन में विश्वास रखने वालों से लेकर यथास्थितिवादियों तक के सभी प्रकार के विचार शामिल थे। दरअसल, समाज सुधारक के रूप में अंबेडकर की छवि कांग्रेस के लिए चिंता का विषय थी। यही वजह थी कि पार्टी ने उन्हें संविधान सभा से दूर रखने की योजना बनाई।
अंबेडकर संविधान सभा में नियुक्त पहले 296 सदस्यों में शामिल नहीं थे। यहां तक कि बॉम्बे के अनुसूचित जाति संघ ने भी अंबेडकर को सदस्य के रूप में स्वीकार करने से इनकार कर दिया। पटेल के अनुरोध पर, बॉम्बे के तत्कालीन मुख्यमंत्री बीजी खेर ने सुनिश्चित किया कि अंबेडकर 296 सदस्यीय पैनल में न चुने जाएं। जब वे बॉम्बे में असफल हुए, तो बंगाल के एक दलित राजनेता जोगेंद्रनाथ मंडल ने उनकी मदद करने की पेशकश की। उन्होंने मुस्लिम लीग की सहायता से अंबेडकर को संविधान सभा में लाया।
हिंदू कोड बिल पर नाराज़गी
1950 में बाबा साहब हिंदू संहिता विधेयक के विरोध में सड़कों पर उतरे और अखिल भारतीय स्तर पर इसके खिलाफ लामबंद हुए। सितंबर 1951 में जब अंबेडकर ने मंत्रिमंडल से इस्तीफा दिया, तो उन्होंने अपने इस्तीफे के कारणों का विस्तार से वर्णन किया। इस्तीफा देते समय उन्होंने जो पत्र लिखा, उसमें उन्होंने अपने लिए इस विधेयक के महत्व को स्पष्ट किया: “वर्ग और वर्ग, लिंग और लिंग के बीच असमानता को बनाए रखना, जो हिंदू समाज की आत्मा है, और आर्थिक समस्याओं पर एक के बाद एक विधेयक पारित करना संविधान का मजाक उड़ाना और गोबर के ढेर पर महल बनाने जैसा है। मेरे लिए हिंदू संहिता का यही महत्व रहा है।”
नेहरू की आंबेडकर के प्रति नापसंदगी
इसके बाद भी कांग्रेस अंबेडकर का विरोध करती रही। 1952 में अंबेडकर ने उत्तर मुंबई लोकसभा सीट से चुनाव लड़ा। लेकिन कांग्रेस ने अंबेडकर के पूर्व सहयोगी एनएस काजोलकर को टिकट दे दिया और अंबेडकर चुनाव हार गए। कांग्रेस का कहना था कि अंबेडकर सोशल पार्टी के साथ थे, इसलिए उनके पास उनका विरोध करने के अलावा कोई और विकल्प नहीं था।
ऐसी कई घटनाएं साबित करती हैं कि कांग्रेस और उसके नेता, खासकर नेहरू, अंबेडकर के रेडिकल पक्ष के खिलाफ थे।
और पढ़ें: बाबा साहब से ये 5 बड़ी बातें सीखकर आप भी बन सकते हैं महान इंसान