24 जुलाई 1991 वो समय था जब आज़ादी के बाद भारत अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रहा था। हालात ऐसे थे कि अगर समय रहते सही फैसला नहीं लिया जाता तो देश आर्थिक संकट में डूब सकता था। लेकिन इन सब हालातों से उभरने में अगर किसी ने सबसे ज्यादा मदद की है तो वो हैं पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह थे। दरअसल 24 जुलाई 1991 को प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिम्हा राव की कैबिनेट में शपथ लेने के ठीक एक महीने बाद वित्त मंत्री मनमोहन सिंह ने अपना पहला बजट पेश किया। सरकार ने नई औद्योगिक नीति भी पेश की, जिससे उद्योगों के विकास में बाधा डालने वाली कई बाधाएं दूर हुईं। हम बात कर रहे हैं Liberalisation की, लेकिन राव और सिंह दोनों के लिए ही सरकार में आना अग्नि परीक्षा जैसा था। क्या थी पूरी कहानी, आइए आपको विस्तार से बताते हैं।
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1991 का संकट क्या था?
1991 में भारत ने अपने सबसे बुरे आर्थिक संकट का सामना किया और संप्रभु ऋण (Sovereign Debt) चूक के कगार पर था। 1990-91 के खाड़ी युद्ध के परिणामस्वरूप तेल की कीमतों में नाटकीय वृद्धि हुई और विदेशों में काम करने वाले भारतीय श्रमिकों से प्राप्त धन में कमी आई। इसके परिणामस्वरूप भारत के विदेशी मुद्रा भंडार में नाटकीय गिरावट आई और यह 6 बिलियन डॉलर से भी कम हो गया, जो देश के आयात के लगभग दो सप्ताह को कवर करने के लिए पर्याप्त है।
सरकार को बढ़ते बजट असंतुलन और बढ़ते विदेशी ऋण स्तरों से भी जूझना पड़ा। सकल घरेलू उत्पाद के 8% के बजट घाटे और सकल घरेलू उत्पाद के 2.5% के चालू खाता घाटे ने सरकार की समस्याओं को और बढ़ा दिया। दोहरे अंकों की मुद्रास्फीति दरों ने भी औसत नागरिक पर बोझ बढ़ा दिया।
संकट को कम करने के लिए तत्काल उपाय
राव सरकार की तात्कालिक प्राथमिकता सॉवरेन डिफॉल्ट को रोकना था – एक ऐसा अपमान जिससे भारत तब तक बचने में कामयाब रहा था। इसने दो तत्काल उपाय किए। सबसे पहले, सरकार ने भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) के साथ मिलकर दो चरणों में रुपये का अवमूल्यन किया, पहली बार 1 जुलाई 1991 को प्रमुख मुद्राओं के मुकाबले लगभग 9 प्रतिशत, उसके दो दिन बाद 11 प्रतिशत का एक और अवमूल्यन किया। इसका उद्देश्य भारतीय निर्यात को अधिक प्रतिस्पर्धी बनाना था। दूसरा, केंद्रीय बैंक ने 4-18 जुलाई 1991 के बीच चार किस्तों में बैंक ऑफ इंग्लैंड के पास भारत की सोने की होल्डिंग्स को गिरवी रख दिया और इस रास्ते से लगभग 400 मिलियन डॉलर जुटाए।
24 जुलाई 1991 को लिया गया ऐतिहासिक फैसला
बीबीसी की रिपोर्ट के अनुसार, जून 1991 में जब नरसिम्हा राव की सरकार सत्ता में आई, उसके एक महीने बाद ही बजट पेश किया गया जिसने देश की किस्मत बदल दी। आमतौर पर बजट तैयार करने में तीन महीने लगते हैं लेकिन मनमोहन सिंह के पास सिर्फ़ एक महीना था। उन्होंने ऐसा बजट पेश किया जिससे लाइसेंस परमिट राज का दौर खत्म हुआ, बंद अर्थव्यवस्था खुली, निजी कंपनियाँ आईं, विदेशी कंपनियाँ भी आईं।
नरसिंह राव ने उद्योग मंत्रालय अपने पास ही रखा। इस मंत्रालय में बदलाव की सख्त जरूरत थी और राव ने अपने सहयोगियों के विरोध के बावजूद एक के बाद एक सुधार किए। जल्द ही इसका फायदा दिखने लगा। पैसा बनने लगा। सरकारी कंपनियों का विनिवेश हुआ। विदेशी निवेश आया। डर था कि विदेशी कंपनियों के आने से भारतीय कंपनियां विफल हो जाएंगी या फिर विदेशी कंपनियों की स्थानीय आपूर्तिकर्ता बनकर रह जाएंगी, लेकिन भारतीय कंपनियां फलने-फूलने लगीं। करोड़ों नए रोजगार बाज़ार में आए और करोड़ों लोग पहली बार गरीबी रेखा से ऊपर उठे।
इन सभी परिवर्तनों से भारत में व्यापार करना आसान हो गया और अगले वर्षों में भारतीय बाजार विदेशी वस्तुओं और निवेशों से भर गया।
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