प्यार से बड़ा कुछ नहीं है। प्यार में इतनी ताकत होती है कि वह पूरी दुनिया को अपने सामने झुकने पर मजबूर कर देता है। दरअसल, ऐसी ही एक कहानी है एक बेहद खूबसूरत तवायफ की जिसे मंदिर के पुजारी से प्यार हो गया था। लेकिन उनका ये प्यार अपनी मंजिल तक नहीं पहुंच सका। यह कहानी है तन्नो बाई और पुजारी धरीक्षण तिवारी की।
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तन्नो बाई और पुजारी धरीक्षण तिवारी
ये प्रेम कहानी 100 साल पुरानी है। उस दौर में पटना में भी तवायफों की महफिलें आम थीं। इसी महफिल का हिस्सा थी तवायफ तन्नो बाई। वह अपने कोठे में आलीशान जिंदगी गुजारती थीं। 1920 के आसपास पटना शहर की की सड़कों के दोनों किनारों पर गुड़हट्टा से लेकर चमडोरिया मोहल्ले तक तवायफों के कोठे अटे पड़े थे। इसी इलाके की एक तवायफ तन्नो बाई जिसे संगीत में महारत हासिल थी। वहीं पटना में ही चौक की कचौड़ी गली में एक छोटा सा वैष्णव मंदिर था जिसके पुजारी धरीक्षण तिवारी इलाके में बेहद प्रतिष्ठित थे। छुआछूत मानने वाले पंडित संगीत के जबरदस्त प्रेमी थे।
तन्नो के संगीत के प्रेमी हुए धरीक्षण
एक दिन धरीक्षण तिवारी दीवान मोहल्ले में एक अमीर आदमी की शादी में शामिल हुए थे। वहां उन्होंने पहली बार तन्नो बाई का संगीत सुना और सुनते ही मंत्रमुग्ध हो गये। तन्नो बाई ने भी वहां अपने इस मुरीद को देखा। जिसके बाद वह पूरी रात ऐसे ही गाती रही। धरीक्षण तिवारी भी हर धुन और हर राग पर सिर हिलाकर तन्नो बाई की कला की प्रशंसा कर रहे थे। इस दिन के बाद धरीक्षण तिवारी की जिंदगी में सब कुछ बदल गया। वह अब हर उस मुजरे में जाने लगे जहां तन्नो बाई प्रस्तुति देने वाली होतीं। वहीं, तन्नो भी उन्हें पहचानने लगीं। तिवारीजी को देखकर उनका उत्साह बढ़ जाता।
शालीनता से वह पुजारीजी को सलाम करतीं। बस दोनों में सलाम, अभिवादन और तारीफ में सिर हिलाने से ज्यादा कुछ नहीं होता था। करीब 20-25 मुजरे के बाद तन्नो ने पुजारी को पान खिलाने की हिम्मत की। धरीक्षण ने पान को माथे से लगाया। रूमाल में लपेटा। जेब में रख लिया। तन्नो को अहसास हुआ कि धरीक्षण ने इसे सम्मान की निशानी के तौर पर अपने पास रख लिया था।
एक दिन पुजारीजी महफिल में नहीं दिखे
इस प्रकार यह क्रम महीनों और वर्षों तक चलता रहा। एक बार कचौड़ी गली के एक अमीर जमींदार ने तन्नो को पांच दिवसीय जलसे के लिए आमंत्रित किया। एक हजार चांदी के सिक्कों की अग्रिम राशि दी गई। जब तन्नो पहुंची तो धरीक्षण तिवारी नहीं दिखे। निराश होकर उसने अपने साथी से पूछा। तो उन्होंने कहा, “बाई साहिबा, पिछली पूर्णिमा की रात को तिवारी जी का निधन हो गया।” ये सुंकर तन्नो सन्न रह गयी। इसके बाद वह जमींदार के पास गयी और उसने कहा, “मुझे माफ कर दीजिए, जमींदार साहब! आज मैं गाना नहीं गा पाऊंगा।” उसने चांदी के सिक्कों की थैली वापस दे दी। इस घटना के बाद तन्नो बाई कई दिनों तक सदमे में रहीं। साथ ही तन्नो ने महफिलों में जाना और गाना भी छोड़ दिया। कुछ समय के बाद तन्नो अपना सारा समय पूजा करने में बिताने लगीं। 50 की उम्र के आसपास उनका निधन हो गया। वहीं मरने के बाद उन्होंने अपनी सारी संपत्ति एक अनाथालय और एक मदरसे को दे दी थी।