साल 2017 में ब्रिटेन में लंदन इंडियन फिल्म फेस्टिवल में एक ऐसा मौका आया जब वहां ‘द ब्लैक प्रिंस’ का प्रीमियर हुआ। यह फिल्म इतनी हिट रही कि जब इसे इंग्लैंड के बर्मिंघम में दिखाया गया तो वहां मौजूद सभी अंग्रेज हक्के बक्के रह गए। यह फिल्म पंजाब के आखिरी महाराजा दिलीप सिंह पर आधारित है, जिसमें उनकी और महारानी विक्टोरिया की कहानी दिखाई गई है। जिसके बारे में बहुत से लोग नहीं जानते। आइए आपको बताते हैं महाराज दिलीप सिंह के बारे में कुछ खास बातें।
निर्देशक कवि राज की इस फिल्म में महाराज दिलीप सिंह का किरदार पंजाब के मशहूर गायक सतिंदर सरताज ने निभाया है। बतौर एक्टर यह उनकी पहली फिल्म है। ‘द ब्लैक प्रिंस’ में शबाना आजमी सरताज की मां का किरदार निभा रही हैं, जो ब्रिटेन में रह रहे महाराज दिलीप सिंह को आगे बढ़कर अपना राज्य वापस लेने के लिए प्रेरित करती हैं।
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कौन थे पंजाब के आखिरी महाराज दिलीप सिंह
महाराजा दिलीप सिंह का जन्म 6 सितंबर 1838 को लाहौर में हुआ था। उनका जन्म एक बहुत ही शक्तिशाली शाही परिवार में हुआ था। वे पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह के सबसे छोटे बेटे और महारानी जिंद कौर के इकलौते बेटे थे। उनके चार पूर्वजों की हत्या कर दी गई थी। पाँच साल की छोटी सी उम्र में ही उन्हें सिख साम्राज्य का शासक बना दिया गया था। 1849 में ब्रिटिश राज ने पंजाब को भारत में मिला लिया। इसके साथ ही महाराजा दिलीप सिंह को गद्दी से उतार दिया गया। वे सिख साम्राज्य के आखिरी राजा थे। महाराज अपनी माँ से अलग हो गए थे। सबसे पहले उन्हें लाहौर से ले जाकर फतेहगढ़ भेजा गया, जो अब उत्तर प्रदेश में है।
दिलीप सिंह अंग्रेजों के बीच पले-बढ़े
महाराज को अंग्रेजी शिष्टाचार सिखाया गया। धीरे-धीरे इन बातों का उन पर ऐसा असर हुआ कि वे खुद अपनी भाषा, धर्म और संस्कृति से विमुख हो गए। वे अंग्रेजों की देख-रेख में बड़े हुए और बहुत बाद में ईसाई बन गए। मई 1854 में उन्हें इंग्लैंड ले जाया गया। वहाँ उनका परिचय महारानी विक्टोरिया से कराया गया। उन्हें महाराज बहुत पसंद आए। महारानी महाराज को प्यार से ‘द ब्लैक प्रिंस’ कहती थीं। इसी नाम को फिल्म का शीर्षक बनाया गया। रानी विक्टोरिया उसे अपने सबसे प्रिय बेटे की तरह मानती थीं। जब भी रानी विक्टोरिया किसी शाही पार्टी में जाती थीं, तो लोग चाहते थे कि वह राजकुमार को अपने साथ लेकर जाएं।
माँ ने याद दिलाया देश प्रेम
जब दिलीप सिंह 13 साल बाद अपनी मां से मिले तो उनकी मां ने उन्हें उनके खोए हुए राज्य की याद दिलाई। दो साल बाद महाराज की मां की मृत्यु हो गई, लेकिन महाराज के मन से अपना राज्य वापस पाने का ख्याल नहीं गया। दिलीप सिंह ने अपनी असली पहचान और अपने राज्य की आजादी के लिए जीवन भर संघर्ष किया। 1893 में पेरिस में उन्होंने अंतिम सांस ली। उन्हें एक सस्ते होटल में मृत पाया गया। उनके शव को इंग्लैंड में ईसाई रीति-रिवाजों के साथ दफनाया गया। हालांकि, ऐसा माना जाता है कि दिलीप सिंह ने अपनी मृत्यु से पहले फिर से सिख धर्म अपना लिया था।
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