भारत में अनगिनत संतों ने जन्म लिया, जिन्होंने न सिर्फ समाज में व्याप्त बुराइयों और कुरीतियों के खिलाफ नारा बुलंद किया, बल्कि समाज को टूटने से भी बचाया। इन्हीं संतों में से एक थे संत रविदास, जिन्हें हम सब रैदास के नाम से भी जानते हैं। उनकी कहावत ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा’ काफी लोकप्रिय हुई, लेकिन क्या आप जानते हैं कि इस कहावत के पीछे की कहानी क्या है? तो चलिए हम आपको इसके पीछे की कहानी बताते हैं।
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कौन थें संत रविदास?
संत रविदास ने समाज से जातिगत असमानता को खत्म करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। वे भक्ति काल के संत और एक उत्कृष्ट समाज सुधारक थे। इनका जन्म 1450 में वाराणसी के पास सीर-गोवर्धनपुर में हुआ था। उनके जन्मस्थान सीर गोवर्धनपुर में एक विशाल सात मंजिला इमारत है। इसे श्री गुरु रविदास जन्म स्थान के नाम से भी जाना जाता है। एक गरीब, निम्न जाति के परिवार में पैदा होने के बावजूद, संत रविदास ने अपना जीवन मानव अधिकारों और समानता की वकालत करने के लिए समर्पित कर दिया। संत रविदास को भारत के महान संतों में से एक के रूप में याद किया जाता है जिन्होंने अपना पूरा जीवन सामाजिक सुधार के लिए समर्पित कर दिया। वे ईश्वर तक पहुँचने का केवल एक ही तरीका जानते थे: ‘भक्ति’। ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा’ आज भी उनकी सबसे प्रसिद्ध अभिव्यक्तियों में से एक है।
‘मन चंगा तो कठौती में गंगा’ का दिया संदेश
संत शिरोमणि रविदास बचपन से ही दयालु और दानशील थे। वे अपने कार्य के प्रति सदैव समर्पित रहते थे। वे बाह्य आडंबरों में विश्वास नहीं रखते थे। एक बार उनके पड़ोसी गंगा स्नान के लिए जा रहे थे, तो उन्होंने रविदास से कहा कि वे भी उनके साथ गंगा स्नान के लिए चलें। इस पर रविदास ने कहा, ‘मैं आपके साथ गंगा स्नान के लिए अवश्य चलता, लेकिन मैंने आज शाम तक किसी के लिए जूते बनाने का वचन दिया है। यदि मैं आपके साथ गंगा स्नान के लिए चला गया, तो न केवल मेरा वचन झूठा होगा, बल्कि मेरा मन भी जूते बनाने के वचन में लगा रहेगा। जब मेरा मन ही नहीं रहेगा, तो गंगा स्नान का क्या मतलब।‘ बात को स्पष्ट करते हुए रैदास ने कहा, ‘यदि हमारा मन सच्चा है तो कठौती में भी गंगा विराजमान होगी।” सतगुरु रविदास के संदेश का सार प्रगतिशील आम जनों के बीच ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा’ लोक संदेश के रूप में बहुत ही प्रसिद्ध है।
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