“अगर कोई इंसान, हिंदुस्तान के क़ुदरती तत्वों और मानव समाज को एक दर्शक के नज़रिए से फ़िल्म की तरह देखता है, तो ये मुल्क नाइंसाफ़ी की पनाहगाह के सिवा कुछ नहीं दिखेगा।” ये पंक्तियाँ बाबा साहब अंबेडकर ने 31 जनवरी 1920 को अपने अख़बार ‘मूकनायक’ के पहले संस्करण में एक लेख में लिखी थीं। बाबा साहब ने खुद ‘मूकनायक’ अख़बार की शुरुआत की थी। यह अख़बार कोई साधारण अख़बार नहीं है, यह बाबा साहब द्वारा शुरू की गई एक ऐसी पहल थी जो 103 साल बाद भी अमर है और दलितों की दबी हुई आवाज़ को उठाने का काम कर रही है। इस अखबार का काम ‘मूक’ समाज को आवाज देना और उनका ‘नायक’ बनना था। मूकनायक के प्रकाशन के समय बाबा साहेब की उम्र मात्र 29 वर्ष थी।
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मूकनयक को लेकर बाबा साहब के विचार
‘मूकनायक’ को लेकर अंबेडकर लिखते हैं कि ‘मुंबई जैसे इलाकों से प्रकाशित होने वाले कई अख़बारों को देखकर लगता है कि उनके कई पन्ने एक ख़ास जाति के हितों को समर्पित हैं। उन्हें दूसरी जातियों के हितों की कोई परवाह नहीं है। कई बार तो वे दूसरी जातियों के लिए हानिकारक भी नज़र आते हैं। ऐसे अख़बार वालों को हमारा संदेश है कि अगर कोई जाति गिरती है तो उसका असर दूसरी जातियों पर भी पड़ता है। समाज एक नाव की तरह है। इंजन वाली नाव में यात्रा करने वाला व्यक्ति यदि जानबूझकर दूसरों को नुकसान पहुंचाता है, तो अपने विनाशकारी स्वभाव के कारण उसे भी अंत में जल समाधि लेनी पड़ती है। इसी प्रकार एक जाति को नुकसान पहुंचाने से दूसरी जाति को भी अप्रत्यक्ष रूप से नुकसान पहुंचता है।’
मूकनायक की जरूरत क्यों पड़ी?
बाबा साहब ने वर्षों से शोषण और हीन भावना से ग्रसित दलित समाज के स्वाभिमान को जगाने के लिए ‘मूकनायक’ का प्रकाशन किया। जो समाज शिक्षा से दूर था और जिसके लिए अपनी मातृभाषा मराठी में पढ़ना-लिखना भी मुश्किल था, उसमें ‘अंग्रेजी मूकनायक’ क्या जागृति ला सकता था? इसीलिए अंबेडकर ने मराठी भाषा में ही अखबार प्रकाशित किए। साथ ही बाबा साहेब ने अपना सामाजिक आंदोलन भी मीडिया के माध्यम से चलाया।
मूकनायक का उद्देश्य
तुकाराम की शिक्षाएं मूकनायक के अभियान का मार्गदर्शन करने का आधार थीं। इसी तरह अंबेडकर का एक और अख़बार ‘बहिष्कृत भारत’ संत ज्ञानेश्वर की शिक्षाओं से प्रेरित था। अंबेडकर ने इन पत्रिकाओं के ज़रिए भारत के अछूतों के अधिकारों की मांग उठाई। उन्होंने मूकनायक के पहले बारह संस्करणों का संपादन किया, जिसके बाद उन्होंने इसके संपादन की ज़िम्मेदारी पांडुरंग भटकर को सौंप दी। बाद में डी.डी. घोलप इस अख़बार के संपादक बने।
मूकनायक का प्रकाशन हुआ बंद
मूकनायक का प्रकाशन 1923 में बंद हो गया। इसका मुख्य कारण यह था कि अख़बार को मार्गदर्शन देने के लिए अंबेडकर उपलब्ध नहीं थे। वे उच्च शिक्षा के लिए विदेश गए हुए थे। इसके अलावा, अख़बार को कोई विज्ञापन नहीं मिलता था और प्रकाशन की लागत वहन करने के लिए ग्राहकों की संख्या अपर्याप्त थी।
मूकनायक का प्रकाशन बंद होने के बाद अंबेडकर ने 3 अप्रैल 1927 को ‘बहिष्कृत भारत’ नामक एक नई पत्रिका शुरू करके पत्रकारिता में वापसी की। यह वही समय था जब अंबेडकर का महाड़ आंदोलन जोर पकड़ रहा था। बहिष्कृत भारत 15 नवंबर 1929 तक 43 संस्करणों में प्रकाशित हुआ, लेकिन वित्तीय कठिनाइयों के कारण इसे भी बंद करना पड़ा। मूकनायक और बहिष्कृत भारत के प्रत्येक संस्करण की कीमत महज डेढ़ आना हुआ करती थी, जबकि डाक सहित इसकी वार्षिक कीमत सिर्फ 3 रुपये थी।
बाबा साहब अंबेडकर ने अपने 65 वर्ष, 7 महीने और 22 दिन के जीवन में लगभग 36 वर्ष पत्रकारिता की। ‘मूकनायक’ से ‘प्रबुद्ध भारत’ तक की उनकी यात्रा उनकी जीवन यात्रा, विचार यात्रा और संघर्ष यात्रा का प्रतीक है।
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