Sikhism in Japan: जापान में सिख धर्म का इतिहास और समुदाय का विकास धीरे-धीरे हुआ है। शुरुआती दौर से लेकर आधुनिक समय तक, सिख समुदाय ने अपनी धार्मिक और सांस्कृतिक पहचान को बनाए रखा है, हालांकि उन्हें कई चुनौतियों का सामना भी करना पड़ा। जापान में सिख समुदाय मुख्य रूप से कोबे और टोक्यो शहरों में केंद्रित है। कोबे का गुरुद्वारा इस समुदाय के लिए एक महत्वपूर्ण स्थल है। आइए आपको बताते हैं जापान से जुड़ा सिख धर्म का इतिहास।
सिख धर्म का जापान में प्रवेश- Sikhism in Japan
1900 में, पूरन सिंह ने टोक्यो विश्वविद्यालय में फार्मास्युटिकल केमिस्ट्री की पढ़ाई के लिए जापान का रुख किया। उन्होंने बाद में बौद्ध भिक्षु बनने का निर्णय लिया।
1903-04 में, कपुरथला के महाराजा जगतजीत सिंह ने जापान का दौरा किया, जिसने उन पर गहरा प्रभाव डाला। उन्होंने अपनी यात्रा का अनुभव 1905 में प्रकाशित “My Travel in China, Japan and Java” नामक पुस्तक में साझा किया।
1920 के दशक में, कुछ सिख जापान के पश्चिमी क्षेत्रों में रहने लगे। 1923 के ग्रेट कांटो भूकंप के बाद, योकोहामा में रह रहे सिख कोबे में बस गए।
द्वितीय विश्व युद्ध का प्रभाव
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान, सिख सैनिकों ने जापानी सेनाओं के खिलाफ लड़ाई लड़ी। इनमें से कुछ सैनिक युद्धबंदी के रूप में पकड़े गए और उन्हें क्रूरता का सामना करना पड़ा। वहीं, कई सिख आज़ाद हिंद सेना में शामिल हुए, जो ब्रिटिश शासन के खिलाफ थी।
कोबे गुरुद्वारा: समुदाय का प्रमुख केंद्र
कोबे में पहला गुरुद्वारा 1952 में स्थापित हुआ। इसे बाद में 1966 में भारतीय प्रवासियों के पुराने निवास स्थान को बदलकर पूरी तरह गुरुद्वारे में परिवर्तित कर दिया गया। इसे ‘गुरु नानक दरबार साहिब’ के नाम से जाना जाता है। यह गुरुद्वारा समुदाय के धार्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक गतिविधियों का केंद्र है। कोबे का सिख समुदाय अधिक परंपरावादी है और अपनी पहचान बनाए रखने में सक्रिय है।
टोक्यो में सिख समुदाय और गुरुद्वारा
1999 में, खालसा पंथ की 300वीं वर्षगांठ के उपलक्ष्य में, टोक्यो में ‘टोक्यो गुरु नानक दरबार’ नामक गुरुद्वारा बनाया गया। यह गुरुद्वारा एक कार्यालय भवन के तहखाने में स्थित है। यह केवल महीने में एक दिन धार्मिक सेवाओं के लिए खुलता है। टोक्यो का सिख समुदाय अधिक शहरी है और कई लोग स्थानीय संस्कृति में आत्मसात हो गए हैं।
सांस्कृतिक पहचान
कोबे के सिख अपनी धार्मिक पहचान बनाए रखते हैं, जबकि टोक्यो के सिख अधिकतर स्थानीय जीवनशैली में ढल चुके हैं। जापान में बसे कई सिख अपने केश काट लेते हैं ताकि स्थानीय समाज में घुल-मिल सकें।
भेदभाव का सामना
शुरुआती दिनों में, जापान में सिखों को उनके अलग रूप के कारण गलतफहमियों का सामना करना पड़ा। उन्हें ‘आतंकवादी’ समझा जाता था। समय के साथ, स्थानीय जापानी समाज ने सिख धर्म को स्वीकार किया और यहां तक कि लंगर सेवाओं में भाग लेने और गुरुद्वारे को दान देने लगे।
आर्थिक और सामाजिक स्थिति
सिख समुदाय में आईटी क्षेत्र में काम करने वाले सिख अपनी धार्मिक पहचान को बनाए रखते हैं, जबकि छोटे व्यवसायों में काम करने वाले सिख अक्सर अपनी परंपराओं से समझौता करते हैं।
प्रसिद्ध हस्तियां और योगदान
कोबे में जन्मे जापानी विद्वान तोमियो मिजोकामी ने पंजाबी भाषा और सिख धर्म पर व्यापक शोध किया। उन्होंने गुरु नानक की रचना जपजी साहिब का जापानी भाषा में अनुवाद किया और उन्हें 2018 में पद्म श्री से सम्मानित किया गया।
#PresidentKovind presents Padma Shri to Prof Tomio Mizokami. A multi-linguist Japanese scholar of Punjabi, Hindi, Bengali & Kashmiri languages, Prof Mizokami is the first Japanese-Punjabi researcher, who translated Sikh prayer ‘Japji Sahib’ to Japanese pic.twitter.com/iYG68qzG4X
— President of India (@rashtrapatibhvn) April 2, 2018
2021 में, टोक्यो गुरुद्वारा ने 5.2 मिलियन येन एकत्र किए, जो भारत में कोविड-19 संकट से निपटने के लिए दान किए गए।
समुदाय की वर्तमान स्थिति
1990 के दशक के अंत में, टोक्यो में सिखों की संख्या 20,000-30,000 थी। हालांकि, अब यह घटकर लगभग 500 रह गई है। इनमें से 50 सिख जापानी नागरिकों से विवाहित हैं।
कोबे में लगभग 40-50 सिख परिवार रहते हैं। यहां की अगली पीढ़ी के बीच पंजाबी भाषा और गुरमुखी लिपि का ज्ञान धीरे-धीरे घट रहा है।