संत रविदास (रैदास) का जन्म बनारस में हुआ था। यह शहर उनकी कर्मभूमि भी थी। रैदास मध्यकालीन युग से ताल्लुक रखते थे। उस समय के समाज की अपनी समस्याएं थीं। तुर्क आक्रमणकारियों और शासन ने बौद्धों और उनके शिक्षा केंद्रों को नष्ट कर दिया था, जिसके कारण कई तरह की सांस्कृतिक जटिलताएँ पैदा हो गई थीं। रैदास एक चामवाला (चाय बेचने वाला नहीं) थे। सरल भाषा में कहें तो वे चमार थे। उनकी जाति को समाज में कोई उच्च दर्जा प्राप्त नहीं था। फिर भी उन्होंने इसे स्वीकार किया है लेकिन उन्होंने कभी भी अपने सामाजिक वर्ग को अपनी आध्यात्मिकता में बाधा नहीं माना।
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संत रविदास के विचार
पंद्रहवीं सदी के कवि होने के बावजूद, रविदास के अत्याधुनिक विचार थे। उन्होंने इस मान्यता को चुनौती दी कि दलित या उस समय के अछूत लोग बुद्धिजीवी, नवप्रवर्तक, दार्शनिक या सबसे महत्वपूर्ण बात, संत नहीं हो सकते क्योंकि वे ब्राह्मण नहीं थे और वेदों के बारे में कुछ नहीं जानते थे। रैदास के बारे में कहा जाता है कि वे इतने महान हो गए कि ब्राह्मण भी उनके सामने झुक गए। एकमात्र ब्राह्मण अधिकार, निर्गुण भक्ति, के माध्यम से रैदास ने ईश्वर तक अपना रास्ता बनाया। रैदास ने कभी भी जाति को अपनी प्रतिबद्धता, लेखन या विचारों के आड़े नहीं आने दिया।
जाति-विरोधी आंदोलन और बेग़मपुरा
उत्तर भारत के जाति-विरोधी आंदोलन में रैदास की अहम भूमिका थी। इस भक्ति आंदोलन के बीच कबीरपंथी, रविदासिया/रैदासी संप्रदाय के लोगों का एक नया समूह उभरा था। यह जाति व्यवस्था में किसी बड़े हस्तक्षेप से कम नहीं था। बेगमपुरा में रविदास जाति, ईश्वर, धर्म, ऊंच-नीच की बात करते हैं। इसके साथ ही वे ‘बेगमपुरा’ में उस तरह के समाज की भी बात करते हैं, जैसा वे चाहते थे। यह कहा जा सकता है कि मार्क्स के जन्म से पहले ही रैदास ने ‘बेगमपुरा’ की कल्पना में भारत में समाजवाद की विचारधारा की खोज कर ली थी।
बेगमपुरा शहर का कॉन्सेप्ट
बेगमपुरा का मतलब है आनंद का शहर। जाति-पाति से रहित, वेद-पुराणों के पाखंड से रहित, मजदूरों की यह दुनिया ऐसी है कि यहां बैठकर खाने-पीने वाले गपशप करने वालों के लिए कोई जगह नहीं है। कार्ल मार्क्स का साम्यवादी समाज भी ऐसा ही है। यानि की एक ऐसा शहर जहां असमानता नहीं होगी, स्वतंत्रता होगी, मित्रता होगी, कोई धार्मिक कर्मकांड नहीं होगा, कोई गलत नहीं होगा, कोई आतंक नहीं होगा, बल्कि सभी की बुनियादी जरूरतें पूरी होंगी, यानी रविदास के बेगमपुरा की न तो कोई भौगोलिक स्थिति है और न ही कोई इतिहास, यह समय की मांग के साथ खरा उतरेगा। समाज कैसा हो, उसमें क्या होना चाहिए जैसे बड़े सवाल, जिनका समाधान हम लंबे-लंबे सिद्धांतों में खोजते हैं, रैदास ने चंद पंक्तियों में ही स्पष्ट कर दिया था।
लेकिन कुछ समय बाद तुलसीदास ने बेगमपुरा और अमरदेस को खारिज कर दिया और “गौ-द्विज हितैषी” रामराज्य की अवधारणा सामने रखी। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि गांधी ने इसे हमारे साम्राज्यवाद-विरोधी राष्ट्रीय आंदोलन का हिस्सा बना दिया। अंबेडकर और कई अन्य लोग इसका विरोध करते रहे, लेकिन समाज के उच्च वर्ग की राष्ट्रीय आंदोलन पर ऐसी पकड़ थी कि कबीर और रैदास के विचार दरकिनार हो गए।
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