मोदी सरकार ने अपने पिछले एक दशक के शासन में यह प्रचारित किया है कि भ्रष्टाचार के प्रति उसका “जीरो टॉलरेंस” है। इस धारणा को मीडिया, कैंपेन और सोशल मीडिया के माध्यम से जनता के मन में गहराई तक स्थापित कर दिया गया। लेकिन हाल के कुछ फैसले और नीतिगत विरोधाभास, जो सरकार के तंत्र और उसकी साख पर सवाल खड़े कर रहे हैं, इस छवि को कमजोर कर रहे हैं। विशेष रूप से फार्मास्यूटिकल सेक्टर में उभर रहे घोटालों ने मोदी सरकार की भ्रष्टाचार विरोधी छवि को गंभीर चोट पहुंचाई है।
दरअसल, PMO के अंतर्गत आने वाली समिति The Appointments Committee of the Cabinet (ACC) ने डिपार्टमेंट ऑफ फार्मास्यूटिकल (DoP) की नियुक्ति वाले एक फैसले पर सवाल उठाए है. ACC एक उच्चस्तरीय समिति है, जो केंद्र सरकार और सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों में प्रमुख पदों पर वरिष्ठ अधिकारियों की नियुक्ति के लिए जिम्मेदार है. एसीसी की अध्यक्षता भारत के प्रधानमंत्री करते हैं और इसमें गृह मंत्री एक सदस्य के रूप में शामिल होते हैं. इसी समिति की ओर से रसायन एवं उर्वरक मंत्रालय के अंतर्गत आने वाले डिपार्टमेंट ऑफ फार्मास्यूटिकल पर सवाल उठाए गए हैं.
नीरजा श्रॉफ: 8 साल की विफलता और मंत्रालय की संदिग्ध भूमिका
भारत सरकार के पास डिपार्टमेंट ऑफ फार्मास्यूटिकल के अंतर्गत 5 फार्मास्यूटिकल कंपनियां थीं – कर्नाटक एंटीबायोटिक्स एंड फार्मास्यूटिकल्स लिमिटेड (KAPL), इंडियन ड्रग्स एंड फार्मास्यूटिकल्स लिमिटेड (IDPL), हिंदुस्तान एंटीबायोटिक्स लिमिटेड (HAL), बंगाल केमिकल एंड फार्मास्यूटिकल्स लिमिटेड (BCPL) और राजस्थान ड्रग एंड फार्मास्यूटिकल्स लिमिटेड (RDPL). इनमें से RDPL का बेड़ा गर्क करके उसे बंद कर दिया गया…बाकी की 4 कंपनियों में से 3 कंपनियां पहले से ही भयंकर नुकसान में है, चौथी कंपनी KAPL जो पिछले 13 सालों से लगातार लाभ कमा रही थी, सरकारी तंत्र उसका भी बेड़ा गर्क करने की दिशा में कदम बढ़ा चुका है.
नीरजा श्रॉफ हिंदुस्तान एंटीबायोटिक्स लिमिटेड की MD है, जिनकी नियुक्ति 2016 में हुई थी. सरकार के नियम कायदे के मुताबिक यह पद 5 सालों के लिए होता है लेकिन नीरजा इस पद पर करीब 8 सालों से काम कर रही हैं. HAL लगातार घाटे में है. HAL की बेहतरी के उन्होंने क्या बड़े कदम उठाए, कुछ प्रयास किए भी या नहीं, यह कोई नहीं जानता! HAL की MD के रूप में काम करते हुए नीरजा को 250 करोड़ रुपये के कर्ज में फंसी RDPL का एडिशनल चार्ज दिया गया और वो कंपनी डूब गई. इसके बावजूद उन्हें लगातार घाटे में चल रही IDPL और BCPL का एडिशनल चार्ज दे दिया गया. नीरजा श्राफ के नेतृत्व में इन कंपनियों का हश्र भी RDPL की तरह कब हो जाए, कहा नहीं जा सकता क्योंकि इन कंपनियों से आउटसोर्सिंग की कई खबरें सामने आ चुकी हैं.
सरकारी तंत्र का मन इससे भी नहीं भरा तो लगातार 13 सालों से लाभ कमा रही सरकारी कंपनी कर्नाटक एंटीबायोटिक्स एंड फार्मास्यूटिकल्स लिमिटेड (KAPL) का एडिशनल चार्ज भी इन्हें थमा दिया गया. जब नीरजा को पहली बार KAPL का एडिशनल चार्ज मिला तो Nedrick News ने सरकार को आगाह किया था और उनसे जुड़ी तमाम चीजें संबंधित मंत्रालय को भेजी गई थी. (इस पर विस्तृत लेख आप यहां पढ़ सकते हैं) लेकिन मंत्रालय की ओर से संतोषपूर्ण जवाब नहीं आया और अब DoP की ओर से नीरजा श्रॉफ को 2 सालों के लिए KAPL का एडिशनल चार्ज दे दिया गया है. इसमें भी नियमों की अनदेखी हुई है.
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DoPT की चुप्पी से सुलगते सवाल
जिस तरह से इन फार्मा कंपनियों में MD की पोस्ट 5 सालों की होती है और नीरजा 8 सालों से HAL की MD के रूप में काम कर रही हैं, वैसे ही एडिशनल चार्ज को लेकर भी सरकारी नियम और कायदे हैं, जिसे इनके मामले में ताक पर रख दिय़ा गया है. डिपार्टमेंट ऑफ पर्सनल एंड ट्रेनिंग (DoPT), भारत सरकार द्वारा 2005 में जारी किए गए ऑफिस मेमोरेंडम में स्पष्ट कहा गया है कि एडिशनल चार्ज के पोस्ट पर कोई भी व्यक्ति 3 महीने से ज्यादा समय तक नहीं रह सकता. किसी आवश्यक परिस्थिति में उसका टेन्योर 3 महीने और फिर 3 महीने बढ़ाया जा सकता है यानी एडिशनल चार्ज के पोस्ट पर काम करने वाला कोई भी शख्स किसी भी परिस्थिति में उस पद पर 9 महीने से ज्यादा दिनों तक काम नहीं कर सकता है.
क्या यह नियम अभी भी लागू है? अगर लागू है तो नीरजा श्रॉफ को 2 सालों के लिए KAPL का एडिशनल चार्ज कैसे दे दिया गया? आप जानकर हैरान रह जाएंगे कि नीरजा के पास BCPL का एडिशनल चार्ज भी 4-5 सालों से है, जो सीधे तौर पर DoPT के नियमों का उल्लंघन है लेकिन DoPT चुप है. यह दर्शाता है कि सरकारी तंत्र के भीतर कुछ गहरी गड़बड़ियां हैं. अब ACC की ओर से इस नियुक्ति पर सवाल उठाए गए हैं और डिपार्टमेंट ऑफ फार्मास्यूटिकल (DoP) से नीरजा श्रॉफ की नियुक्ति को लेकर जवाब मांगा गया है.
मंत्रालय और DoPT की संदिग्ध भूमिका
नीरजा श्रॉफ की नियुक्ति और उनकी असफलताओं के बावजूद उन्हें लगातार महत्वपूर्ण पदों पर बनाए रखने में मंत्रालय और DoPT की संदिग्ध भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। नियमों के अनुसार, किसी अधिकारी को अतिरिक्त प्रभार 9 महीने से अधिक नहीं दिया जा सकता है, लेकिन नीरजा श्रॉफ को चार फार्मा कंपनियों का प्रभार कई वर्षों तक दिया गया। यह सवाल उठाता है कि क्या मंत्रालय और DoPT के अधिकारियों के बीच कोई अंदरूनी समझौता है, जिसके तहत इन नियुक्तियों को अंजाम दिया जा रहा है?
PMO की ओर से अब डिपार्टमेंट ऑफ पर्सनल एंड ट्रेनिंग (DoPT) के इस फैसले पर सवाल उठाए गए हैं। लेकिन यह सवाल अभी भी बना हुआ है कि मंत्रालय और DoPT ने इन फैसलों को कैसे और क्यों लिया? क्या यह केवल नीतिगत अक्षमता है, या फिर इसके पीछे कोई गहरी साजिश छिपी है? नीरजा श्रॉफ जैसे विफल अधिकारियों को महत्वपूर्ण पदों पर बनाए रखने के पीछे क्या कारण हो सकते हैं? क्या यह केवल मंत्रालय की अक्षमता का मामला है, या फिर इसके पीछे कोई अंदरूनी समझौता है?
आत्मनिर्भर भारत का सपना और विरोधाभासी नीतियां
सरकार का “आत्मनिर्भर भारत” का नारा, जो देश को विभिन्न क्षेत्रों में आत्मनिर्भर बनाने का वादा करता है, फार्मास्यूटिकल सेक्टर में एक गहरे विरोधाभास का सामना कर रहा है. कर्नाटक एंटीबायोटिक्स एंड फार्मास्यूटिकल्स लिमिटेड (KAPL), जो पिछले 13 सालों से लगातार मुनाफे में रही है, को हाल ही में PLI (प्रोडक्शन लिंक्ड इंसेंटिव) योजना के तहत करोड़ों रुपये का निवेश करने के निर्देश दिए गए ताकि भारत चीन पर अपनी निर्भरता को खत्म कर सके और महत्वपूर्ण दवाओं का उत्पादन देश में किया जा सके.
लेकिन रसायन और उर्वरक मंत्रालय ने इसके साथ ही यह भी स्पष्ट कर दिया कि KAPL का निजीकरण किया जाएगा. यहां गंभीर सवाल खड़ा होता है कि अगर कंपनी का निजीकरण होना है, तो उसे करोड़ों रुपये का निवेश करने का निर्देश क्यों दिया गया? यह नीति स्पष्ट रूप से विरोधाभासी है, जो न केवल कंपनी के भविष्य को अस्थिरता में डालती है, बल्कि “आत्मनिर्भर भारत” के सपने को भी कमजोर करती है.
यह सवाल उठता है कि अगर कंपनी को निजी हाथों में जाना है, तो फिर उसे सरकारी योजनाओं के तहत भारी निवेश करने की आवश्यकता क्यों है? क्या यह एक सुनियोजित साजिश है, जिसके तहत कंपनियों को पहले कमजोर किया जाता है और फिर निजीकरण की प्रक्रिया को आसान बना दिया जाता है? यह नीतिगत विरोधाभास न केवल सरकारी तंत्र की पारदर्शिता पर सवाल खड़ा करता है, बल्कि देश की औद्योगिक नीति के प्रति सरकार की प्रतिबद्धता पर भी संदेह पैदा करता है.
निष्कर्ष: मोदी सरकार की छवि पर गहरा धब्बा
जरा आप भी सोचिए, सरकारी तंत्र में बैठे लोगों ने किस प्रकार से सरकारी कंपनियों का बेड़ा गर्क कर रखा है. आम जनता की सहूलियत के लिए गठित की गई कंपनियों में शीर्ष पदों की नियुक्तियों पर जब सवाल खड़े होने लगते हैं, तो संबंधित समिति और संबंधित मंत्रालय की मानसिकता उजागर होने लगती है. एक ही शख्स नीरजा श्रॉफ को 4 सरकारी फार्मा कंपनियों में शीर्ष पद मिलना कई तरह के सवाल खड़े करता है. यह कैसे संभव है, इसके पीछे की मानसिकता क्या हो सकती है आप आसानी से समझ सकते हैं? क्या नीचे से लेकर ऊपर तक सब मिले हुए हैं? क्या डिपार्टमेंट ऑफ फार्मास्यूटिकल के अधिकारी किसी अंदरूनी समझौते के तहत ऐसी नियुक्तियां कर कर रहे हैं? DoPT के नियम कायदे ताक पर रखे जा रहे हैं तो DoPT की ओर से सवाल क्यों नहीं उठाए जा रहे? ये ऐसे सवाल हैं, जिनके जवाब हर कोई ढूंढ रहा है.
नीरजा श्रॉफ की नियुक्ति और सरकारी नीतियों में पारदर्शिता की कमी मोदी सरकार की भ्रष्टाचार विरोधी छवि पर गहरा धब्बा लगा रही है. यदि सरकार जल्द ही इन नीतियों पर पुनर्विचार नहीं करती और अपने वादों को हकीकत में नहीं बदलती, तो उसकी साख पर बड़ा संकट खड़ा हो सकता है. यह वक्त है कि सरकार अपनी नीतियों में स्थायित्व और पारदर्शिता लाए, अन्यथा यह घोटाले और नीतिगत विरोधाभास उसकी छवि को ध्वस्त कर सकते हैं.