इतनी भीषण गर्मी में लोग अपने घरों से बाहर निकलने से भी डर रहे हैं। कुछ इलाके ऐसे भी हैं जहां आज भी लोगों को पानी की कमी के कारण भारी परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है। पानी की कमी के कारण कुछ राज्य ऐसे भी हैं जो आज भी अपने हिस्से के पानी के लिए लड़ रहे हैं। आप जान गए होंगे कि हम बात कर रहे हैं पंजाब और हरियाणा के बीच चल रहे सतलुज-यमुना लिंक (SYL) विवाद की। मोटे तौर पर कहें तो सतलुज यमुना लिंक पर पंजाब और हरियाणा के बीच पानी के बंटवारे को लेकर विवाद 58 साल से चल रहा है। इसमें अब तक 32 लोगों की मौत हो चुकी है। सुप्रीम कोर्ट के साथ-साथ राजनीतिक तौर पर भी इस मुद्दे को आपसी सहमति से सुलझाने की कई कोशिशें की गईं, लेकिन कोई खास सफलता नहीं मिली।
और पढ़ें: इन पांच मुद्दों से समझिए पंजाब और हरियाणा में क्यों है इतना विवाद
क्या है सतलुज-यमुना लिंक नहर विवाद
अब इस मुद्दे पर विस्तार से बात करते हैं। वर्ष 1955 में हरियाणा को पंजाब से अलग किए जाने से करीब 10 साल पहले रावी और ब्यास नदियों के पानी का आकलन किया गया था, जो 15.85 मिलियन एकड़ फीट था। फिर उसी साल सरकार ने तीन राज्यों की बैठक बुलाई, जिसमें राजस्थान, पंजाब और जम्मू-कश्मीर शामिल थे। इस बैठक में तीनों राज्यों के बीच पानी का बंटवारा किया गया। जिसमें राजस्थान को 8, पंजाब को 7.20 और जम्मू-कश्मीर को 0.65 मिलियन एकड़ फीट पानी मिला। इसके बाद वर्ष 1966 में पुनर्गठन अधिनियम के तहत पंजाब और हरियाणा दो अलग-अलग राज्य बन गए। अब पंजाब के हिस्से में जो पानी था, उसे दो हिस्सों में बांट दिया गया और हरियाणा के हिस्से के 7.20 मिलियन एकड़ फीट पानी में से 3.5 मिलियन एकड़ फीट पानी दे दिया गया। इस फैसले का विरोध करते हुए पंजाब ने रिपेरियन सिद्धांतों का हवाला देते हुए रावी और ब्यास नदियों का पानी देने से इनकार कर दिया।
SYL नहर पर समझौता
1976 में केंद्र सरकार ने जल बंटवारे के बारे में अधिसूचना जारी की। लेकिन पंजाब और हरियाणा के बीच विवाद इतना बढ़ गया था कि इसे लागू करना मुश्किल हो गया था। हालांकि, 1980 तक हरियाणा ने अपने क्षेत्र में नहर परियोजना पूरी कर ली थी। दोनों राज्यों के बीच लगातार युद्ध चल रहा था। जब बातचीत से कोई हल नहीं निकला तो 1981 में सतलुज-यमुना लिंक नहर पर समझौता हुआ।
SYL नहर की आधारशिला
8 अप्रैल 1982 को पंजाब के पटियाला के कपूरई गांव में 214 किलोमीटर लंबी सतलुज-यमुना लिंक नहर की आधारशिला रखी गई थी। पंजाब का हिस्सा 122 किलोमीटर और हरियाणा का हिस्सा 92 किलोमीटर था। हरियाणा ने नहर का अपना हिस्सा पूरा कर लिया। हालांकि, उस समय पंजाब में विपक्ष में बैठी शिरोमणि अकाली दल के विरोध के कारण यह परियोजना रोक दी गई थी।
राजीव-लोंगोवाल समझौता
जब पंजाब में इस नहर के खिलाफ विरोध तेज हुआ तो तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने अकाली दल के प्रमुख हरचंद सिंह लोंगोवाल के साथ समझौता किया और नहर पर काम फिर से शुरू हुआ। उस समय पंजाब में एसएस बरनाला के नेतृत्व वाली अकाली दल की सरकार थी, जिसने 700 करोड़ रुपये की लागत से नहर का 90 प्रतिशत काम पूरा कर लिया था। लेकिन 1990 में सिख आतंकवादियों द्वारा नहर पर काम कर रहे दो वरिष्ठ इंजीनियरों और 32 मजदूरों की हत्या के बाद काम रुक गया। 1996 में हरियाणा सरकार ने एक बार फिर सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया और पंजाब से नहर निर्माण कार्य पूरा करने की मांग की। लेकिन अभी तक पंजाब और हरियाणा के बीच इस मुद्दे पर कोई आपसी सहमति नहीं बन पाई है। जिस वजह से ये काम अटका हुआ है।