‘जय भीम’… ये सिर्फ एक नारा नहीं बल्कि ये उन अंबेडकरवादियों की पहचान है जो समाज में दलितों की अहमियत समझते हैं, जो समाज को छुआछूत मुक्त करना चाहते हैं, ये वो लोग हैं जो बाबा साहब को अपना आदर्श मानते हैं। जय भीम सिर्फ एक नारा नहीं बल्कि एक इमोशन है जिसे सिर्फ वो ही समझ सकता है जिसने भेदभाव को करीब से देखा हो। लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि जय भीम का नारा कहां से आया और इस नारे को सबसे पहले किसने कहा? आइए आपको बताते हैं इस नारे के पीछे का इतिहास।
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वैसे तो बाबा साहब अंबेडकर का पूरा नाम भीमराव रामजी अंबेडकर था। अंबेडकर आंदोलन से जुड़े लोग उनके सम्मान में उन्हें ‘जय भीम’ कहते हैं। जय भीम सिर्फ अभिवादन का शब्द नहीं है बल्कि आज यह अंबेडकर आंदोलन का नारा बन गया है।
सबसे पहले कब इस्तेमाल हुआ ‘जय भीम’ का नारा
अम्बेडकर आंदोलन के एक कार्यकर्ता बाबू हरदास एलएन (लक्ष्मण नगराले) ने पहली बार 1935 में ‘जय भीम’ का नारा दिया था। इतिहास पर गौर करें तो चावदार झील और नासिक के कालाराम मंदिर में सत्याग्रह के कारण डॉ. अंबेडकर का नाम घर-घर में पहुंच चुका था। इसके बाद महाराष्ट्र में डॉ. अंबेडकर द्वारा आगे बढ़ाए गए दलित नेताओं में बाबू हरदास भी शामिल थे। रामचंद्र क्षीरसागर की किताब दलित मूवमेंट इन इंडिया एंड इट्स लीडर्स में दर्ज है कि बाबू हरदास ने ही सबसे पहले ‘जय भीम’ का नारा दिया था। अंबेडकर ने गुंडों और असामाजिक तत्वों को नियंत्रित करने और हर गांव में समानता के विचारों को फैलाने के लिए समता सैनिक दल की स्थापना की थी और बाबू हरदास समता सैनिक दल के सचिव थे।
जय भीम’ का नारा ऐसे आया अस्तित्व में
बीबीसी की रिपोर्ट के मुताबिक, दलित पैंथर के सह-संस्थापक जेवी पवार कहते हैं, “बाबू हरदास ने कामठी और नागपुर क्षेत्र के कार्यकर्ताओं का एक संगठन बनाया था। उन्होंने इस बल के कार्यकर्ताओं से कहा कि वे नमस्ते, राम राम या जौहर मायाबाप के बजाय एक-दूसरे का अभिवादन और जवाब ‘जय भीम’ कहकर करें। उन्होंने यह भी सुझाव दिया था कि जय भीम के जवाब में ‘बाल भीम’ कहा जाना चाहिए, जैसे मुसलमान ‘सलाम वालेकुम’ का जवाब देते समय ‘वलेकुम सलाम’ कहते हैं। उनका बनाया रास्ता आदर्श बन गया।”
उन्होंने आगे कहा, “1938 में औरंगाबाद जिले के कन्नड़ तालुका के मकरनपुर में अंबेडकर आंदोलन के कार्यकर्ता भाऊसाहेब मोरे ने एक बैठक आयोजित की थी। इस बैठक में डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर भी मौजूद थे। बाबू हरदास ने यह नारा दिया था जबकि भाऊसाहेब मोरे ने इस नारे का समर्थन किया था।”
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