Caste System in Sikhism: सिख धर्म ने भारतीय समाज की सबसे बड़ी बुराइयों में से एक जाति व्यवस्था को खारिज करके एक नई सामाजिक व्यवस्था की नींव रखी। यह धर्म समानता, मानवतावाद और सद्भाव के सिद्धांतों पर आधारित है। गुरु नानक से लेकर उनके उत्तराधिकारियों तक, सिख धर्म के हर पहलू ने जातिगत भेदभाव और सामाजिक पदानुक्रम को खारिज किया।
जाति व्यवस्था का ऐतिहासिक संदर्भ- Caste System in Sikhism
भारत में जाति व्यवस्था आर्यों के आगमन के बाद विकसित हुई। यह एक कठोर सामाजिक व्यवस्था थी, जिसमें समाज को ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र जैसे वर्णों में विभाजित किया गया। इसका आधार धार्मिक मान्यताओं और कर्मकांडों पर रखा गया था। ब्राह्मणों ने जाति व्यवस्था को वैध ठहराने के लिए धार्मिक ग्रंथों का सहारा लिया, जिसमें मनुस्मृति और अन्य शास्त्र शामिल हैं।
जाति व्यवस्था का उद्देश्य सामाजिक कार्यों का विभाजन था, लेकिन इसने समाज को स्थायी असमानता और भेदभाव की जंजीरों में जकड़ दिया। निम्न जातियों को अपवित्र और अछूत मानकर उनके साथ अमानवीय व्यवहार किया गया।
सिख धर्म की जातिवाद पर चोट
सिख धर्म ने इस असमानता के विरुद्ध क्रांति की (Sikhism vs caste discrimination)। गुरु नानक देव ने जाति को निरर्थक बताते हुए कहा:
“जाति का क्या महत्व है? सत्यता ही मापदंड है।” (श्री गुरु ग्रंथ साहिब, पृष्ठ 142)
गुरु नानक (Foundation of Sikhism by Guru Nanak) ने जाति और सामाजिक भेदभाव को सिरे से खारिज करते हुए समानता के आदर्शों पर जोर दिया। उनके बाद आने वाले सिख गुरुओं ने भी इन सिद्धांतों को मजबूती से आगे बढ़ाया। उन्होंने धर्म और सामाजिक व्यवस्था में जातिगत आधार को खत्म कर दिया और संगत और पंगत की परंपराएं शुरू कीं।
खालसा पंथ और जातिगत समानता
गुरु गोबिंद सिंह (Guru Gobind Singh established Khalsa Panth) ने 1699 में खालसा पंथ की स्थापना की। यह एक क्रांतिकारी कदम था, जिसने जातिगत असमानताओं को खत्म करने का प्रयास किया। खालसा में सभी जातियों को समान रूप से स्वीकार किया गया। गुरु गोबिंद सिंह ने जाति, जन्म, और पेशे से जुड़ी सभी बाधाओं को खत्म करने का आदेश दिया।
खालसा में शामिल होने के लिए पांच अनिवार्य नाश (धर्म नाश, करम नाश, कुल नाश, श्रम नाश, ब्रह्म नाश) का पालन करना होता था। यह प्रतीक था कि जातिगत भेदभाव और परंपरागत सामाजिक बंधनों को तोड़कर एक नए समतावादी समाज का निर्माण हो।
सिख धर्म में व्यावहारिक बदलाव
सिख धर्म में जाति व्यवस्था को वैचारिक रूप से खारिज कर दिया गया। हालांकि, भारतीय समाज में इसकी गहरी जड़ें होने के कारण, सिख समुदाय में भी कुछ हद तक जातिगत भेदभाव के अवशेष देखे जाते हैं।
सिख गुरुद्वारों में जातिगत भेदभाव नहीं किया जाता, और लंगर (सामूहिक भोजन) में सभी जातियों के लोग एक साथ भोजन करते हैं। फिर भी, विवाह जैसे सामाजिक मामलों में, जातिगत प्रतिबंध अभी भी किसी हद तक प्रभावी हैं।
जाति के खिलाफ सिख धर्म की स्थायी लड़ाई
सिख धर्म ने न केवल जाति व्यवस्था को खारिज किया, बल्कि इसके विरोध में ठोस कदम उठाए। सिख गुरुओं ने अपने जीवन और उपदेशों के माध्यम से जातिवाद को चुनौती दी। गुरु ग्रंथ साहिब में जातिगत भेदभाव और असमानता के खिलाफ स्पष्ट संदेश दिए गए हैं।
जातिवाद का खंडन और सिख धर्म की सफलता
सिख धर्म की जातिवाद के खिलाफ लड़ाई आज भी प्रासंगिक है। यह धर्म समानता, भाईचारे और मानवता के सिद्धांतों को बढ़ावा देता है। हालांकि सामाजिक और ऐतिहासिक कारणों से जातिगत भेदभाव पूरी तरह से खत्म नहीं हुआ है, लेकिन सिख धर्म ने इसे वैधता और धार्मिक स्वीकृति देने से इनकार कर दिया है। सिख धर्म का यह दृष्टिकोण हमें एक ऐसे समाज के निर्माण के लिए प्रेरित करता है जहां व्यक्ति की पहचान उसकी जाति, धर्म या पेशे से नहीं बल्कि उसके कर्मों और मानवता से होती है।