आज हम आपको एक ऐसे भारतीय की कहानी बताने जा रहे हैं, जिसे भगवान की पूजा करने के व्यक्तिगत अधिकार से वंचित रखा गया और इस अधिकार को पाने के लिए उसने लंबी लड़ाई लड़ी। दरअसल हम बात कर रहे हैं टी. मारीचामी की, जो पिछड़ी जाति से ताल्लुक रखते हैं और वर्तमान में दक्षिण भारतीय राज्य तमिलनाडु के मदुरै में पुजारी हैं। पुजारी की उपाधि पाने के लिए उन्हें काफी लंबी लड़ाई लड़नी पड़ी थी। एक समय ऐसा भी था जब उन्हें मंदिर में प्रवेश करने की भी अनुमति नहीं थी, क्योंकि वे पिछड़ी जाति से थे। आइए आपको बताते हैं उनके संघर्ष की कहानी।
ईश्वर और पूजा के लिए लड़ाई
बीबीसी से बात करते हुए मरीचामी ने बताया कि बचपन से ही उन्हें पूजा-पाठ में रुचि थी। जब वे बड़े हुए तो उन्होंने तय किया कि वे किसी मंदिर में पुजारी बनेंगे। उस समय उन्हें नहीं पता था कि पिछड़े वर्ग से होने के कारण उन्हें पुजारी बनने के लिए काफी संघर्ष करना पड़ेगा। 2006 में तमिलनाडु सरकार की ओर से एक प्रशिक्षण शुरू किया गया, जिसने उन्हें एक उम्मीद दी। इस प्रशिक्षण के तहत राज्य में रहने वाले पिछड़े समाज के लोग पुजारी के तौर पर प्रशिक्षण ले सकते हैं और पूजा-पाठ की सभी विधियां सीख सकते हैं। मरीचामी ने इस प्रशिक्षण के लिए आवेदन किया था।
ट्रेनिंग में आई बड़ी मुश्किलें
मरीचामी कहते हैं कि शुरू में जातिगत भेदभाव के कारण उन्हें प्रशिक्षण लेने में काफ़ी दिक्कतें आईं। प्रशिक्षण शिविर में उनके साथ पिछड़े वर्ग के कई लोग थे, जो दूर-दराज के इलाकों से आए थे। बड़ी मुश्किल से उन्होंने पुजारी बनने की ट्रेनिंग पूरी की। इस दौरान उन्हें जातिगत टिप्पणियों और हिंसा जैसी चीज़ों का भी सामना करना पड़ा।
ब्राह्मण ने मारीचामी पर दर्ज कराया मुकदमा
प्रशिक्षण और पुजारी के रूप में नियुक्ति के बाद, कुछ ब्राह्मणों ने मरीचमी के खिलाफ मुकदमा दायर किया, जिससे राज्य को राज्य के निचले वर्गों के लगभग 200 सदस्यों के प्रशिक्षण प्रमाणपत्रों पर मुहर लगाने से रोक दिया गया। मरीचमी का दावा है कि उसने इस मामले को आगे बढ़ाने में अपने जीवन के तेरह साल खो दिए। लेकिन वह वर्तमान में वह सब कुछ करता है जो उसने कभी सपने में भी नहीं सोचा था, जिसमें देवता को भोग लगाना और मंदिर में पूजा करना शामिल है।
हालांकि, समय के साथ चीजें बदलती गई और अब उनके साथ जातिगत भेदभाव नहीं होता। मंदिर में पुजारी को जो सम्मान मिलना चाहिए, वह भी उन्हें मिलता है। वे कहते हैं कि उन्होंने अपने जीवन का लंबा समय इस संघर्ष में लगाया है, लेकिन वे अपने समुदाय के लिए एक नई उम्मीद लेकर आए हैं कि भगवान, पूजा और आस्था पर किसी एक वर्ग का अधिकार नहीं है, भगवान एक हैं और वे सभी के हैं।
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