सत्यशोधक समाज क्या था जिसके गठन के लिए ज्योतिबा फुले ने किया अपना जीवन समर्पित और ब्राह्मणवादी व्यवस्था को दी चुनौती

Jyotirao Phule and Savitribai Phule
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ज्योतिबा फुले ने जाति प्रथा, पुरोहितवाद, लैंगिक असमानता और अंधविश्वास के साथ-साथ समाज में व्याप्त आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक भ्रष्टाचार के खिलाफ़ सामाजिक बदलाव लाने का काम किया। सत्य शोधक समाज के ज़रिए फुले ने करीब 146 साल पहले शूद्रों और अतिशूद्रों को उनके विकास और सम्मान को पाने का रास्ता दिखाया। ज्योतिबा फुले ने 24 सितंबर 1873 को महाराष्ट्र के पुणे में सत्य शोधक समाज की स्थापना की। ज्योतिबा फुले सत्य शोधक समाज के पहले अध्यक्ष और कोषाध्यक्ष थे। उन्होंने चेतना और समानता पर समाज की वैचारिक नींव रखी। आइए आपको बताते हैं कि ज्योतिबा फुले किस तरह के समाज की कल्पना कर रहे थे।

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महामना फुले का जीवन

माली के एक साधारण परिवार में जन्मे ज्योतिबा फुले का पालन-पोषण पुणे में हुआ, जो पेशवाई राजवंश का गढ़ था। अछूतों का उत्पीड़न और उनका जाति अभिमान पेशवाई राजवंश की पहचान थी। फुले ने शूद्रों और अतिशूद्रों को जाति व्यवस्था से मुक्ति पाने के लिए एकजुट होने और आधुनिक ज्ञान प्राप्त करने की सलाह दी। अपनी पत्नी सावित्रीबाई फुले और अन्य सहयोगियों के साथ मिलकर उन्होंने कई शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना की। उन्हें पहला महिला विद्यालय स्थापित करने के लिए जाना जाता है। लेकिन उन्हें सबसे ज्यादा सत्यशोधक समाज के लिए याद किया जाता है।

Jyotiba Phule
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सत्यशोधक समाज क्या था?

सत्यशोधक समाज का सर्वोच्च उद्देश्य दलित जातियों को शिक्षित करना था। शूद्रों और अतिशूद्रों को ब्राह्मणों के चंगुल से मुक्त कराना था और उनमें चेतना पैदा करना था ताकि ब्राह्मण शूद्रों और अतिशूद्रों का अपनी इच्छानुसार उपयोग न कर सकें। वहीं सत्यशोधक समाज को गैर-ब्राह्मण स्वरूप देने के लिए ज्योतिबा फुले ने समाज में उच्च वर्ग, कुलीन वर्ग, नौकरशाहों और ब्राह्मणों के प्रवेश पर प्रतिबंध लगा दिया था। केवल शूद्र समुदाय के लोग ही सत्यशोधक समाज का हिस्सा हो सकते थे। लेकिन ज्योतिबा इस बात के भी पक्षधर थे कि आपकी लड़ाई में शामिल होने वाले किसी भी व्यक्ति की जाति न पूछी जाए।

सत्य शोधक समाज की स्थापना

ज्योतिबा फुले ने सामाजिक परिवर्तन आंदोलन को संगठित करने के लिए 24 सितंबर, 1873 को ‘सत्य शोधक समाज’ की स्थापना की। उस समय समाज सुधारक होने का दावा करने वाले कई संगठन सक्रिय थे। ‘ब्रह्म समाज’ (राजा राम मोहन राय), ‘प्रार्थना समाज’ (केशव चंद्र सेन), पुणे सार्वजनिक सभा (महादेव गोविंद रानाडे) इत्यादि उनमें प्रमुख थे। ये सभी लोग  चाहते थे कि समाज में जाति रहे, लेकिन उसका चेहरा उतना क्रूर और अमानवीय न हो। बात दें, ज्योतिबा फुले की मृत्यु के बाद उनकी पत्नी सावित्रीबाई फुले ने सत्य शोधक समाज के काम को आगे बढ़ाया।

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सत्यशोधक समाज का प्रचार-प्रसार

कोई भी संगठन या आंदोलन तभी तेजी से फैलता है और वैधता प्राप्त करता है जब उसे राजनीतिक समर्थन मिलता है। सत्यशोधक समाज को कोल्हापुर के राजा शाहूजी महाराज से पूरा समर्थन मिला, जो मानते थे कि पिछड़े लोगों का उत्थान राजनीतिक शक्ति के माध्यम से ही संभव है। शाहूजी महाराज ने अपने शासन में पिछड़े लोगों के लिए आरक्षण व्यवस्था लागू की थी और महिलाओं की शिक्षा में योगदान दिया था। सत्यशोधक समाज को मराठा कुनबी, माली, कोली जैसी कृषि जातियों का मजबूत समर्थन मिला, जिससे समाज को जन-जन तक पहुंचने में मदद मिली।

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