पंजाब के इतिहास (punjab history) में कई ऐसे पन्ने हैं जो समय के साथ धूल खा रहे हैं। लेकिन आज हम उन दबी हुई किताबों से एक खास किस्सा लेकर आए हैं जिसके बारे में बहुत कम या शायद कोई नहीं जानता। दरअसल आज हम आपको पीरो प्रेमन (Piro Preman) के बारे में बताएंगे, जो एक दलित यौनकर्मी और पंजाबी कवि थीं, जिन्होंने 19वीं सदी में अपनी कविताओं और लेखन के ज़रिए पितृसत्ता, धार्मिक संस्थाओं और सामाजिक असमानताओं को चुनौती दी थी। उनका जीवन और कार्य पितृसत्तात्मक समाज में महिलाओं, खासकर दलित महिलाओं के संघर्ष और आत्म-सशक्तिकरण का प्रतीक है।
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पीरो प्रेमन का जीवन- Life of Piro Preman
पीरो प्रेमन का जन्म एक दलित परिवार में हुआ था और उनका शुरुआती जीवन कठिनाइयों और संघर्षों से भरा था। उन्हें जबरन सेक्स वर्क में धकेला गया, लेकिन उन्होंने इस पेशे में रहते हुए भी अपने अस्तित्व और स्वतंत्रता के लिए संघर्ष किया। अपनी कविताओं और लेखन के माध्यम से उन्होंने न केवल समाज में व्याप्त जातिगत भेदभाव को उजागर किया बल्कि पितृसत्ता और धार्मिक पाखंड को भी चुनौती दी।
उनका साहित्य और विचारधारा
पीरो प्रेमन की कविताएँ (Poems by Piro Preman) पितृसत्ता, धार्मिक पाखंड और सामाजिक असमानताओं के ख़िलाफ़ विद्रोह की आवाज़ थीं। उनकी रचनाओं में महिलाओं की कामुकता, दलित पहचान और सामाजिक शोषण के विषय प्रमुखता से उभर कर आते हैं। उनके काम ने उस समय की रूढ़िवादी मानसिकता को चुनौती दी और उन्होंने महिलाओं के आत्म-सशक्तिकरण की बात की।
उनकी रचनाएँ पितृसत्ता के खिलाफ़ एक सशक्त आवाज़ थीं, जिसमें उन्होंने अपने अनुभवों के आधार पर महिलाओं के शोषण और संघर्ष को सामने लाया। उनकी कविताएँ अक्सर महिलाओं की आज़ादी और उनके अधिकारों की बात करती हैं, जो उस समय की सामाजिक व्यवस्था में महिलाओं के लिए एक विद्रोही विचारधारा थी।
पितृसत्ता को चुनौती
अपनी कविताओं के माध्यम से पीरो प्रेमन ने समाज में महिलाओं के साथ हो रहे भेदभाव और शोषण को चुनौती दी। उन्होंने न केवल पुरुष प्रधान समाज पर सवाल उठाए बल्कि धार्मिक संस्थाओं के पाखंड को भी उजागर किया। उनकी रचनाओं में यह स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है कि उन्होंने उस समय के समाज में व्याप्त जातिगत और लैंगिक असमानताओं के खिलाफ आवाज उठाई।
उनके योगदान का महत्व
दलित साहित्य और नारीवाद में पीरो प्रेमन का योगदान बेहद महत्वपूर्ण है। उन्होंने उस समय के समाज में महिलाओं, खासकर दलित महिलाओं के अधिकारों और स्थिति के बारे में सवाल उठाए, जिन्हें अक्सर नजरअंदाज कर दिया जाता था। उनकी रचनाएँ बताती हैं कि समाज के सबसे निचले स्तर पर भी व्यक्ति अपनी आवाज़ उठा सकता है और समाज के गलत मूल्यों को चुनौती दे सकता है। उनका जीवन और कार्य हमें यह प्रेरणा देते हैं कि सशक्तिकरण केवल बाहरी परिस्थितियों से नहीं आता है, बल्कि व्यक्ति की आंतरिक शक्ति और सोच से आता है।
पीरो का असली नाम
पीरो के बारे में बहुत कम जानकारी उपलब्ध है, लेकिन जसबीर सिंह के अनुसार गुलाबदास के डेरे में ही उनका कविता के प्रति रुझान हुआ और उनका नाम पीरो प्रेमन रखा गया। इतिहासकार डॉ. राज कुमार हंस ने बीबीसी को बताया, “पीरो उनका असली नाम नहीं था। उनका असली नाम आयशा था, लेकिन जब वो गुलाबदास के संपर्क में आईं और डेरे में रहने लगीं, तो वो इतनी प्रतिभाशाली और ज्ञानी थीं कि उन्हें पीर का दर्जा दिया गया। लेकिन चूंकि वो एक महिला थीं, इसलिए उनका नाम पीर से बदलकर पीरो रख दिया गया। उन्हें पीरो प्रेमन इसलिए कहा गया क्योंकि वो सिर्फ़ पीर ही नहीं थीं बल्कि एक महान प्रेमन भी थीं। और किसकी प्रेमन थीं वो, गुलाबदास की और भगवान की।”
कुल मिलाकर कहें तो पीरो प्रेमन एक क्रांतिकारी कवियित्री थीं जिन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से न केवल पितृसत्तात्मक और जातिवादी समाज को चुनौती दी बल्कि अपने जीवन संघर्षों के माध्यम से यह भी साबित किया कि व्यक्ति अपने अधिकारों और स्वतंत्रता के लिए लड़ सकता है। उनके साहित्य ने तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था में एक नई सोच और विद्रोह की भावना को जन्म दिया।
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