हाल ही में पश्चिम बंगाल के वीरभूम जिले में एक आदिवासी महिला के गैरजातीय युवक के साथ अवैध संबंध रखने के जुर्म में उसके साथ गैंगरेप के आदेश की घटना ने इंसानियत को शर्मसार कर दिया है. हैरानी की बात तो ये है कि कानून को ही कटघरे में खड़ा करने वाला ये आदेश किसी न्यायपालिका द्वारा नहीं बल्कि कंगारू अदालत की ओर से दिया गया. अब मन में सवाल ये उठता है कि देश में सुप्रीम कोर्ट, हाई कोर्ट व अन्य निचली अदालतों के अलावा ऐसी कौन सी अदालत है जिसका आदेश देश के एक तबके के लिए उच्च न्यायालय से भी सुप्रीम है. ये कौन सी अदालत है जिसके बारे में न ही कोई स्कूली शिक्षा में जिक्र किया गया और न ही किसी किताब में इसका वजूद दिखता है. तो आइये जानें क्या है कंगारू कोर्ट्स जो कुछ लोगों के लिए आज भी तमाम कानूनों से बढ़कर है.
क्या है कंगारू कोर्ट ?
दरअसल इस तरह की अदालतें देहाती इलाकों में आयोजित की जाती हैं. इसे स्थानीय भाषा में सालिसी सभा भी कहा जाता है. ये अदालत कानून या न्याय के मान्यता प्राप्त मानकों की अवहेलना करता है. इन अदालतों में अभियुक्त के खिलाफ निर्णय पहले से ही आधारित होता है. इन अदालतों के फैसले असंवैधानिक और गैर कानूनी होते हैं. ये अपनी मन मर्जी से चलते हैं. उदाहरण के तौर पर किसी छोटे मोटे जुर्म के लिए ये अदालत किसी भी महिला को बदचलन बता देते हैं. या सामूहिक बलात्कार का आदेश दे देते हैं. कभी भी महिला की पिटाई करने वाले पुरुष को पेड़ों से बांधकर बदले में उसकी पिटाई करने का आदेश दे दिया जाता है.
पश्चिम बंगाल में ज्यादा सक्रिय
ये अदालतें सबसे ज्यादा पश्चिम बंगाल में सक्रिय हैं. कई सरकारें आई और गयीं लेकिन इन अदालतों की जमीनी हकीकत नहीं बदली. तमाम राजनेता लोगों से इस सिस्टम को जड़ से उखाड़ने का चुनावी वादा करते हैं लेकिन असल हकीक़त तो ये है कि इन्हीं राजनेताओं के संरक्षण में इस तरह की अदालतें पल रही हैं. आये दिन इन ढोंगी अदालतों के तुगलकी फरमान जारी होते रहते हैं जिनमें हत्या और बलात्कार जैसे आदेश शामिल है. लेकिन इसके बावजूद ये आदेश देने वाले बच जाते हैं. गौरतलब है कि साल 2011 में कोर्ट पहले ही इन अदालतों को गैर कानूनी घोषित कर चुका है. लेकिन उच्च न्यायालय के आर्डर के बावजूद उनकी नाक के नीचे ही कंगारू अदालत आये दिन कानून की अवहेलना करने वाले आदेश जारी करती रहती हैं.
तमाम घटनाएं हैं उदाहरण
वर्तमान में बंगाल के बीरभूमि जिले में एक आदिवासी महिला के साथ गैंगरेप का आदेश इसका सबसे ताजा उदाहरण है. इससे पहले ओडिशा के मयुरभंज में ऐसी घटना सामने आई थी जहां अलग-अलग समुदायों के एक लड़के और एक लड़की के बीच प्रेम संबंध के विरोध में उनका कथित तौर पर सिर मुड़ाकर उन्हें सड़कों पर घुमाया गया. ऐसा ही कुछ राजस्थान में एक युवती के बचपन की शादी विरोध करने पर हुआ था जिसके बाद कंगारू अदालत ने उस पर 16 लाख रूपए का जुर्माना लगाया तथा उसके परिवार को समाज से बहिष्कृत कर दिया था. यही नहीं एक बार बंगाल के बीरभूम जिले में 75 साल के एक वृद्ध की दसों अंगुलियां काट दी गईं थी क्योंकि गांव वालों ने उस पर जादू टोना का आरोप लगाया था.
सदियों पुरानी है ये परंपरा
कुछ जानकारों की मानें तो इन अदालतों का चलन भारत में अंग्रेजों के शासन काल से भी पहले से चला आ रहा है. इस दौरान भारतीय दंड संहिता लागू होने के बावजूद स्थानीय पंचायतें, राजा और जमींदार समानांतर न्याय व्यवस्था चलाते हुए तमाम विवादों का निपटारा करते थे. उनका फैसला पत्थर की लकीर के समान होता था. लेकिन 21वीं सदी में ऐसी अदालतें समाज के लिए किसी धब्बे से कम नहीं है. जहां देश एक तरफ प्रगतिशील विचारधारा की ओर तेजी से कदम बढ़ा रहा है, वहीं दूसरी तरफ समाज के एक वर्ग की ऐसी सोच और हरकतें देश को गहरी खाई की ओर धकेलने में लगी हुई हैं. फ़िलहाल, पुलिस, प्रशासन और सरकार की सख्ती के बिना इन पर अंकुश लगाना संभव नहीं है.