भारत में अनगिनत जातियां है, कई धर्म है और उससे जुड़े अलग अलग सरनेम। कई बार ऐसा देखने को मिलता है कि सिख धर्म के लोगों के नाम के बाद सिंह लगाया जाता है अगर शख्स पुरुष है तो और अगर कोई सिख महिला है तो उसके नाम के पीछे कौर लगा होता है। सिखों के दसवें गुरु गुरु गोबिंद सिंह दी ने नाम के पीछे सिंह और कौर लगाने का फैसला एकता के उद्देश्य से लिया। गुरु जी कहते थे कि “सो क्यों मंदा आखिये, जित जम्मे राजान” जिसका मतलब है कि उस नारी को बुरा क्यों कहा जाए जिस नारी ने एक राजा को जन्म दिया।
साल 1699 के दौरान देश में जाति प्रथा उफान पर थी। इसी वक्त में साल 1699 में ही एक त्योहार सिख धर्म के दसवें गुरु ‘गुरू गोबिंद सिंह जी’ ने मनाया जिसका नाम था बैसाखी और तभी उन्होंने अपने कुछ खास शिष्यों को भोजन कराया और फिर अपने शिष्यों के हाथों से ही पानी पिया और एक अलग तरह की गुरु चेले की उन्होंने मिसाल दी। इस तरह से गुरु गोबिंद सिंह जी ने दुनिया को सिखाया कि जरुरत हुई तो गुरु भी चेला बन जाता है यानी कि हमेशा ही लोगों को सीखना चाहिए।
सिख भाइयों के लिए गुरु गोबिंद सिंह जी ने ‘सिंह’ शब्द को इस्तेमाल किया तो वहीं सिख महिलाओं के लिए ‘कौर’ शब्द के इस्तेमाल की बात की। सिंह का मतलब है शेर, जो किसी से डरता नहीं और हमेशा सच के रास्ते पर चलता है। उनका कहना था कि सिंह को किसी का नहीं डर होता वो बस भगवान से डरता है। गुरु गोबिंद सिंह जी का कौर से मतलब था राजकुमारी। पुरुष और महिला के बीच का अंतर को उन्होंने खत्म करने के लिए महिलाओं को कौर से बुलाने की शुरुआत की और वो हमेशा चाहते थे कि महिलाओं को पुरुषों सम्मान मिले।
महिलाओं को समानता का अधिकार दिए जाने के लिए गुरु गोबिंद सिंह जी ने कई उपदेश दिए और कहा कि एक महिला ही राजा को पैदा करती है फिर उसी महिला को उसके अधिकार आखिर क्यों नहीं मिलते जो एक राजा को पैदा करती है। गुरु जी कहते हैं कि जो एक राजा को अधिकार मिलता है उन अधिकारों की हकदार महिलाएं भी हैं।