आज हम आपको सिखों के छठवें गुरु…गुरु हरगोबिंद साहिब जी के बारे में कुछ खास बातें बताने जा रहे हैं। गुरु हरगोबिंद सिंह जी अमृतसर के बडाली में पैदा हुए और वो सिखों के पांचवें गुरु अर्जुन देव जी के बेटे थे। उनकी माता का नाम गंगा था। गुरु हरगोबिंद सिंह जी ने अपना ज्यादातर वक्त युद्ध प्रशिक्षण के साथ ही युद्ध कला को और अच्छा करने में लगाया। गुरु जी कुशल तलवारबाज थे, कुश्ती और घुड़सवारी में भी वो काफी माहिर थे।
गुरुजी ने सिखों को अस्त्र-शस्त्र की ट्रेनिंग लेने के लिए हमेशा ही प्रेरित किया और सिख पंथ को एक योद्धा वाला व्यक्तित्व दिया। वो खुद एक क्रांतिकारी योद्धा के तौर पर पहचाने गए। गुरु हरगोबिंद जी हमेशा ही एक परोपकारी योद्धा रहे, जिनका जीवन-दर्शन लोगों के हित में रहा।
अकाल तख्त का गुरु हरगोबिंद सिंह ने ही निर्माण किया और मीरी पीरी के साथ-साथ कीरतपुर साहिब की भी उन्होंने ही स्थापना करवाई। वो रोहिला की लड़ाई में, कीरतपुर की लड़ाई में, हरगोविंदपुर की लड़ाई और करतारपुर इसके अलावा गुरुसर और अमृतसर जौसी लड़ाई में अहम तौर पर एक योद्धा की तरह लड़े। गुरु जी एक ऐसा गुरु हुए जो कि युद्ध में पहली दफा शामिल हुए।
सिखों को युद्ध कलाएं सिखाने इसके साथ साथ सैन्य परीक्षण के लिए भी गुरुजी ने प्रेरित किया था। वो गुरु हरगोबिंद जी ही थे जिन्होंने मुगलों के अत्याचारों से पीड़ित हुए अनुयायियों में फिर से आत्मविश्वास भरा और मुगलों के विरोध में अपनी सेना संगठित की। उन्होंने अपने शहरों की किलेबंदी की। गुरु जी ने ‘अकाल बुंगे’ की भी स्थापना की। ‘बुंगे’ का मतलब है एक बड़ा भवन जिसके ऊपर एक गुंबज बना हो। गुरुजी ने अमृतसर में अकाल तख्त बनवाया और अकालियों की गुप्त गोष्ठियां इसी भवन में होने लगीं और इस दौरान जो भी फैसले होते उसको ‘गुरुमतां’ यानी कि ‘गुरु का आदेश’ नाम से जाना गया।
गुरुजी ने अमृतसर के पास लौहगढ़ नाम का किला बनवाया। मुगल बादशाह जहांगीर को जब लगा कि दिनों दिन सिख मजबूत होते जा रहे हैं, तो उसने गुरुजी को ग्वालियर में कैद करवाया। यहां गुरु हरगोबिंद जी 12 साल तक कैद रहे और इसी दौरान सिखों की गुरुजी के प्रति सम्मान और आस्था गहरी होती गई। सिख लगातार मुगलों से दो-दो हाथ करते रहे और जब गुरु जी को रिहा किया गया, तो शाहजहां के खिलाफ उन्होंने बगावत की और फिर संग्राम में शाही फौज को मात दे दी।
आखिर में कश्मीर के पहाड़ों में उन्होंने शरण ली जहां साल 1644 में उन्होंने कीरतपुर में संसार छोड़ दिया, लेकिन उससे ठीक पहले गुरुजी ने अपना उत्तराधिकारी अपने पोते गुरु हर राय जी को नियुक्त किया, जो कि आगे चलकर सिखों के 7वें गुरु बने।