इलाहाबाद शहर की एक कोर्ट में एक मई 1958 को क्या हुआ जिसने आग की तरह विद्रोह को पूरे देश में फैला दिया। क्या किया था एक जवान महिला ने उस दिन जिसके बाद उसपर सभी की आंखें टिक गयी थीं। दरअसल, 24 साल कि जवान लड़की ने जज की आखों में आंखें डालकर बात कर रही थी और अपने अधिकारों के हनन पर विरोध के स्वर को बुलंद कर रही थी।
24 साल की हुसैन बाई ने जज जगदीश सहाय से तनकर कहा था कि वह एक वेश्या है। फिर संविधान का हवाला देकर हुस्ना ने मानव तस्करी को बैन करने के लिए लाए गए एक नए क़ानून को सीधे तौर पर चुनौती देने की याचिका को दायर किया था।
हुस्ना ने जज के सामने दलील थी कि आजीविका के साधनों पर नया कानून हमला करता है और देश में संविधान में स्थापित कल्याणकारी राज्य के लक्ष्य के उलट इस नए कानून ने काम किया है। देखते ही देखते हुस्ना बाई की याचिका से लोगों में खासा चिंता और दिलचस्पी बढ़ने लगी। लंबे काग़ज़ी दस्तावेज़ तैयार किए गए। इलाहाबाद की वेश्याओं का एक ग्रुप डांसर्स की यूनियन इस याचिका के सपोर्ट में आई। यहां तक की दिल्ली, पंजाब और बॉम्बे की कोर्च में वेश्याओं की ऐसी याचिकाएं बढ़ने लगीं।
हुस्ना अपनी कज़िन बहन साथ ही दो छोटे भाइयों के साथ रहाक करती जो कि उनकी कमाई पर डिपेंडेंट थे। इस नए कानून में ऐसा क्या था जिसके विरोध में हुस्ना बाई ने लौ जलाई और देखते ही देखते ये आग की तरह दिल्ली बंबई हर जगह फैल गया।
दरअसल, उस साल एक नया कानून आया जिसके मुताबिक वेश्यावृत्ति कानून एक क्राइम था और देह व्यापार करने पर बैन लगाया गया था। हुस्ना बाई इसी कानून के अगेंट्स विरोध कर रही थी। वो मानती थी कि नया कानून उनकी रोजी-रोटी ही निगल जाएगा।
वेश्याओं को नए क़ानून ने अपने फ्यूचर को लेकर परेशानी में डाल दिया था जिसे दूर करने के लिए ग्राहकों और स्थानीय व्यापारियों से उन्होंने पैसे जुटाए। ऐसा भी दावा किया गया कि करीब 75 महिलाओं ने राजधानी दिल्ली में प्रदर्शन भी किया वो भी संसद के बाहर।
कुछ गायिका, नर्तकी और कुछ ‘बदनाम मानी जाने वाली 450 महिलाओं ने भी नए क़ानून के खिलाफ आवाज उठाई और इलाहाबाद में नर्तकियों यानि कि डांसर्स के एक ग्रुप ने ऐलान कर दिया कि वे प्रदर्शन करेंगी इस क़ानून के विरोध में क्योंकि यह ‘संविधान में तय किसी भी पेशे को अपनाने राइट पर सीधे हमला था। तब कलकत्ता के रेड लाइट एरिया 13 हज़ार सेक्स वर्कर्स ने आजीविका का दूसरा और कोई ऑप्शन न देने पर भूख हड़ताल पर जाने की धमकी दी।
बीबीसी की एक डिटेल्ड स्टोरी पर गौर करें तो हिस्टोरियन रोहित डे बताते हैं कि तब वेश्याओं के संवैधानिक सिद्धांतों के आह्वान पर आलोचक हैरान थे। हुसैन बाई की याचिका साथ उसके बाद वाली याचिकाओं को नए अटैक के तौर पर देखा गया गणराज्य के प्रगतिशील एजेंडे पर। डे के मुताबिक ये तो साफ़ था कि सेक्स व्यापार में जो लोग लिप्त थे पहले ही वे अपने पेशे पर ख़तरे को महसूस कर रहे थे साथ ही नए क़ानून ने दबाव को और ज्यादा बढ़ा भी दिया था।
भारत की संविधान सभा में जो महिलाएं शामिल थीं उनको अनुभवी आयोजक के तौर पर देखा जाता और उन महिलाओं का तर्क ये था कि वेश्या बनने का ऑप्शन महिलाओं ने नहीं चुना बल्कि हालातों से मजबूर होकर उनको ये पेशा अपनाना पड़ता है।
हालांकि हुस्ना बाई की याचिका को टेक्निकल बेस पर दो हफ्तों के अंदर ही ख़ारिज किया गया और कहा गया कि उनके राइटंस को अब तक नए क़ानून से चोट नहीं पहुंची ऐसा इस कारण क्योंकि ना तो उन्हें बेदख़ल किया गया अपने काम से और न तो उनके खिलाफ कोई क्रिमिनल शिकायत की गयी। जज सहाय ने कहा कि उनके तर्क बेदख़ल पर सही थे पर जज और कुछ नहीं बोले।
हद तो तब हुई जब सुप्रीम कोर्ट ने संवैधानिक तौर पर क़ानून को सही पाते हुए ये कहा कि वेश्याएं आजीविका के राइट का इस्तेमाल नहीं कर पाएंगी।