बिरसा मुंडा, समाज के वो हीरो जिन्होंने अंग्रेजों के मन में इतना भय पैदा कर दिया जिसकी वजह से उनकी मौत आज भी एक रहस्यमयी घटना बनी हुई है. मुंडा को आज के समय में काफी संकुचित समाज वर्ग जानता है. क्योंकि आजादी के हीरो कहे जाने वाले मुंडा के संघर्ष को उचित सम्मान और पहचान नहीं मिल सकी जितनी देश के लिए कुर्बान होने वाले बाकी स्वतंत्रता सेनानियों को मिली है. आइये आजादी के इस अनसंग हीरो की जिंदगी की जानें रोचक दास्तां.
1875 में हुआ था जन्म
मुंडा को 19वीं सदी के आदवासी का प्रमुख जननायक कहा जाता है. उनका जन्म 15 नवंबर 1875 में बिहार प्रदेश के रांची जिले के उलीहातू गांव में हुआ था. उस दौरान झारखंड और बिहार एक ही राज्य हुआ करते थे और बंगाल का भी विभाजन नहीं हुआ था. उन्होंने अपनी शुरुआती पढ़ाई साल्गा गांव में की, जिसके बाद वो चाईबासा इंग्लिश मिडल स्कूल में पढ़ने आये. उन्होंने वहां पर क्रिश्चियनिटी को करीब से जाना. उन्होंने महसूस किया कि आदिवासी समाज हिंदू धर्म को सही से नहीं समझ रहा.
अंग्रेजों ने छीने आदिवासियों के अधिकार
जब भारत में अंग्रेजों का राज नहीं था तब उससे पहले जंगल और जमीन आदिवासियों के लिए मां के समान हुआ करते थे. लेकिन अंग्रेजों के आकर सब तहस नहस कर दिया. साथ ही आदिवासियों को उनके अधिकारों से वंचित कर दिया. लेकिन बिरसा मुंडा की अगुआई में आदिवासियों ने बेगार प्रथा के खिलाफ मोर्चा खोला और सफल रहे. इसके अलावा आदिवासी जो पहले से ही वहां की सामंती और जमींदारी व्यवस्था से लड़ते आ रहे थे उसे बिरसा मुंडा ने और धार देने का काम किया.
मुंडा ने डाले ‘उलगुलान’ के बीज
आदिवासियों को हमारे देश में हमेशा ही दरकिनार किया जाता रहा है. उनके संसाधनों को छीन कर उन्हें गुलाम के मानिंद जीने को विवश किया जाता है. लेकिन इसको ख़त्म करने के लिए मुंडा ने आदिवासियों के बीच ‘उलगुलान’ के बीज डाले थे. उलगुलान का अर्थ होता है उथल-पुथल. ये उलगुलान शोषण के खिलाफ, अपने हकों और अधिकारों को वापिस पाने के लिए, झूठ और फरेब के खिलाफ, ब्रितानी और सामंती व्यवस्था के खिलाफ थी. मुंडा मानते थे इन सब के खिलाफ ‘उलगुलान’ से बेहतर कोई जवाब नहीं है. इसके अलावा सीमित संसाधनों के बावजूद उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह का बिगुल बजाया था. उनके द्वारा गठित ‘गोरिल्ला सेना’ ने कई समय तक अंग्रेजों से जंग जीती.
रहस्यमय परिस्थितियों में हुई मौत
25 साल की उम्र में चक्रधरपुर में बिरसा की गिरफ्तारी हो गई. ये माना जाता है कि अंग्रेजों के खिलाफ व्यापक असर को देखते हुए कारागार में उन्हें जहर दे दिया गया था. लेकिन लोगों से कहा कि कारागार में हैजे की वजह से उनकी मौत हो गई. उन्होंने 9 जून 1900 में अपनी अंतिम सांस ली. लेकिन अंग्रेजों का ये तर्क किसी के गले नहीं उतरा. जिसके बाद देश आज भी भारत माता के हीरो के रूप में उन्हें याद करता है. हमारे देश के संसद के सेंट्रल हॉल में भी उनका चित्र टांगा गया है.