Ambedkar and Sikhism in Hindi – हिंदू धर्म में भेदभाव, उत्पीड़न, अश्पृश्यता आदि के कारण बाबा साहेब ने 1935 में ही इस धर्म का त्याग कर दिया था. उसके बाद उन्होंने 21 वर्षों तक सभी धर्मों के बारे में गहन अध्ययन किया. काफी चिंतन मनन करने के बाद उन्होंने बौद्ध धर्म को दलितों के लिए उपयुक्त माना और बौद्ध धर्म में शामिल हो गए. लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि बाबा साहेब मुस्लिम, ईसाई या सिख क्यों नहीं बनें? बाबा साहेब मुस्लिम क्यों नहीं बनें, इसकी वीडियो आप आई बटन पर क्लिक करके देख सकते हैं…लेकिन बाबा साहेब सिख धर्म में शामिल क्यों नहीं हुए, इसके पीछे की कहानी आज हम आपको बताएंगे.
सिख दलितों की दुर्दशा और रविदासिया धर्म
दरअसल, सिख धर्म में गुरु गोविंद सिंह जी के बाद से लेकर अभी तक कई बार श्री गुरुग्रंथ साहिब का विरोध और जातीय भेदभाव देखने को मिल चुका है. श्री गुरुग्रंथ साहिब के विरोध में निरंकारियों का प्रदर्शन इतिहास में दर्ज है और इसी के कारण हुए अमृतसर हत्याकांड की यादें आज भी रोंगटे खड़ी कर देती है. सिख धर्म से अलग होकर अलग जाति और पंथ को मानने वाले लोगों की संख्या भी कम नहीं है. आपने रविदासिया धर्म का नाम भी सुना होगा, जिससे चमार रैप गर्ल गिन्नी माही आती हैं. सिख धर्म में रुढ़ीवादी सोच और दलितों की दुर्दशा, हिंदू धर्म के लगभग समान ही है.
पहले रविदासिया समुदाय के लोग सिख धर्म को ही मानते थे. उसके अनुरुप अपनी चीजें करते थे…सिख धर्म की संस्कृति को फॉलो करते थे. लेकिन सिख धर्म में मचे कलह और जातीय उत्पीड़न के कारण जमकर बवाल मचा. हालात बिगड़ते चले गए…चीजें बिगड़ती चली गई. जट सिख और दलितों के बीच जातीय झगड़े बढ़ते चले गए. हिंदू धर्म में कुरीतियों के कारण जिन दलितों ने सिख धर्म अपनाया था, उन्हें सिख धर्म में भी सिख दलित का ही दर्जा प्राप्त था. वे सिख धर्म में भी भेदभाव और उत्पीड़न के शिकार थे. इसी का परिणाम हुआ कि साल 2010 में सिख धर्म विभाजित हो गया और उससे एक नया धर्म निकला…जिसे दुनिया आज रविदासिया धर्म के नाम से जानती है.
और पढ़ें: जब बीबी को लिखे पत्र में बाबा साहेब हुए थे भावुक, कही थी ये बात
बाबा साहेब ने सिख धर्म क्यों नहीं अपनाया?
अब आप सोच रहे होंगे कि इससे बाबा साहेब का क्या कनेक्शन है. तो आपको बता दें कि बाबा साहेब को इन चीजों का पहले से ही पूर्वाभास था. हिंदू धर्म त्यागने के बाद 21 वर्षों के अंतराल में उन्होंने सिख धर्म (Ambedkar and Sikhism) के हर एक पहलू को देखा और समझा था. गुरु रविदासिया धर्म कमेटी के प्रचारकों के अनुसार, बाबा साहेब को 1936 में मास्टर तारा सिंह पंजाब लेकर गए थे. वह उन्हें सिख धर्म की महिमा के बारे में बताने और बाबा साहेब को सिख धर्म अपनाने के लिए प्रेरित करने को ध्यान में रखते हुए पंजाब लेकर गए थे.
पंजाब जाकर तारा सिंह ने बाबा साहेब को सिख धर्म अपनाने को कहा और बाबा साहेब तैयार भी हो गए. लेकिन बाबा साहेब ने एक शर्त रखी कि अगर आप हमारे साथ यानी दलितों के साथ रोटी और बेटी की साज रखेंगे तो मैं सिख धर्म अपना लूंगा. इस पर मास्टर तारा सिंह मुकर गए. सिख धर्म में जातीय प्रभाव को देखते हुए बाबा साहेब ने उसे अपनाने से इनकार कर दिया था.
ये है चमार का असली मतलब – Ambedkar and Sikhism
बाबा साहेब को सिख धर्म की कुरीतियों का आभास पहले से ही था. इसे लेकर कभी कभार झड़प भी देखने को मिली थी. भेदभाव और प्रताड़ना का घड़ा भरते ही 2010 में सिख दलित, सिख धर्म से अलग हो गए. ध्यान देने वाली बात है कि पंजाब में सिख दलितों की आबादी 32 फीसदी के करीब है. साल 2010 में सिख दलितों ने वाराणसी में संत रविदास जयंती के अवसर पर यह घोषणा की कि वे रविदासिया धर्म का पालन करेंगे. उसी साल डेरा सचखंड बल्लन ने रविदासिया मंदिरों और गुरुद्वारों में श्री गुरुग्रंथ साहिब को अपने स्वयं के ग्रंथ अमृतबाणी के साथ प्रतिस्थापित कर दिया, जिसमें संत रविदास के 200 भजन शामिल थे.
गुरु रविदासिया धर्म कमेटी के प्रचारक विक्रम सिंह रविदासिया के अनुसार धर्मों के नाम वंशों के आधार पर रखे जाते थे. इसीलिए रविदासिया धर्म का नाम गुरु रविदास महाराज के वंश के नाम पर रखा गया है. उनके अनुसार, गुरु रविदास ने कहा है कि मानवता की कोई जाति नहीं होती. इंसान तीन चीजों से मिलकर बना है- चमड़ा, मांस और रक्त, जिसका अर्थ है चमार. गुरु रविदास की विचारधारा के अनुसार चमार कोई जाति नहीं है, यह तो मानवता की परिभाषा है. गुरु रविदासिया धर्म के प्रचारकों के अनुसार, सिख धर्म में भेदभाव के कारण ही सिख दलितों ने रविदासिया धर्म को अपनाया ताकि उन्हें इस धर्म में वो सम्मान, वो अधिकार मिले जो कभी सिख धर्म (Ambedkar and Sikhism) में नहीं मिल पाए.
बनारस में पैदा हुए थे संत रविदास
आपको बता दें कि भारत की पावन धरा पर 15 वीं सदी में बनारस में पैदा हुए गुरु रविदास, एक महान संत, दर्शनशास्त्री, कवि, समाज-सुधारक और ईश्वर के अनुयायी थे. वह निर्गुण संप्रदाय अर्थात् संत परंपरा को मानने वाले थे. उन्होंने उत्तर भारत में भक्ति आंदोलन का नेतृत्व किया था. गुरु रविदास ने अपने अनुयायियों के साथ-साथ सामुदायिक और सामाजिक लोगों में सुधार के लिए अपने कविता लेखनों के जरिए आध्यात्मिक और सामाजिक संदेश दिए. वो अपने अनुयायियों की नजर में उनकी सामाजिक और आध्यात्मिक जरुरतों को पूरा करने वाले मसीहा के रूप में थे. आज के समय में उन्हें पूजा जाता है. उनकी रचनाओं से प्रेरणा ली जाती है, उनका गुणगान किया जाता है. भारत ही नहीं पूरी दुनिया में उन्हें सम्मान के साथ याद किया जाता है.
और पढ़ें: “सावरकर के अंदर नफरत बजबजा रही है”, डॉ अंबेडकर ने ऐसा क्यों कहा था?