तुम जिन दलितों के लिए अपने परिवार को अनदेखा कर रहे हो, वो दलित एक दिन तुम्हें भूल जाएंगे… ये शब्द थे बाबा साहब अंबेडकर के इकलौते जीवित बेटे यशवंत राव अंबेडकर के। जिस तरह से बाबा साहेब आज इतिहास के पन्नों में सर्वणिम अक्षरों में जाने जाते हैं, वैसी पहचान उनके बेटे को नहीं मिली। एक तरफ बाबा साहब दलितों के मसीहा थे, तो वहीं उनका अपना ही बेटा उनके जीवनभर नफरत करता रहा। ये नफरत इतनी थी कि दोनों एक साथ एक छत के नीचे तक नहीं रहते थे।
लेकिन सवाल ये है कि आखिर क्यों बाबा साहेब के इकलौते बेटे उनके नफरत करते थे? क्यों उनके खुद के बेटे बाबा साहब की दलितों की लड़ाई को बिना आधार का मानते थे? आज हम बाबा साहब और उनके बेटे यशवंत राव अंबेडकर के उस रिश्ते के बारे में बात करेंगे, जिसके बारे काफी कम चर्चा की जाती है…
अंबेडकर ने परिवार पर नहीं दिया ध्यान
बाबा साहब की पहली शादी रमाबाई अंबेडकर से 1906 में हुई थी। उस वक्त अंबेडकर 15 साल के थे और रमाबाई 9 साल की थी। शादी के करीब 6 सालों बाद 1912 में यशवंत राव अंबेडकर का जन्म हुआ था। इसके बाद अंबेडकर और रमाबाई के 4 और संतानें हुई। तीन बेटे और एक बेटी। शादी के बाद भी अंबेडकर के अपनी पढ़ाई को जारी रखा, लेकिन अपनी पढ़ाई के दौरान वो अपने परिवार और बच्चों की जिम्मेदारी को भूल गए।
अंबेडकर बचपन से ही बागी प्रवृति के थे, जिसके कारण ही उन्होनें दलितों के उत्थान के लिए और उन्हें बराबरी का हक दिलाने के लिए सवर्णों के साथ युद्ध जारी रखा। मगर वो ये भूल गए कि दलितों के भले के बारे में सोचने के अलावा भी उनका परिवार है, जिसके प्रति भी उनकी कुछ जिम्मेदारी थी।
इस वजह से नाराज रहते थे उनके बेटे
यशवंत राव के जन्म के बाद रमाबाई ने जितनी भी संतानों को जन्म दिया, वो सभी कुछ समय के बाद भूख और बीमारी से मर गए। जिसका गुस्सा यशवंत राव में धीरे धीरे भरने लगा। हद तो तब हो गई, जब उनके सबसे छोटे बेटे राज रतन की डबल निमोनिया के कारण मौत हो गई थी, और बाबा साहब उस वक्त अपने बेटे के शव को श्मशान ले जाने के बजाए दलितों के लिए बनाए गए गोलमेज सम्मेलन में चले गए थे। और तो और जब अंतिम संस्कार के लिए पैसे मांगें गए तो उन्होंने कह दिया कि उनके पास अंतिम संस्कार के लिए भी पैसे नहीं है..और ये बात सच भी थी।
एक घर में रहकर भी अलग रहते थे दोनों
दलितों के लिए लड़ने वाले बाबा साहेब के पास अपने परिवार का पेट पालने तक के पैसे नहीं होते थे। कहा जाता है कि जब राज रतन के लिए कफन के भी पैसे नहीं हो सके तो रमाबाई ने अपनी साड़ी का एक टुकड़ा दिया, जिससे कफन बनाया गया। बाबा साहेब के भाई राज रतन को श्मशान अंतिम संस्कार के लिए ले गए थे। यशवंत राव अपने पिता से काफी खिन्न रहा करते थे। और रही सही कसर उनकी माता की मृत्यु के बाद पूरी हो गई। रमाबाई को टीबी हो गया था और इलाज के अभाव में और भूख के कारण 1935 में रमाबाई की मौत हो गई थी। जिसके कारण यशवंत राव और बाबा साहब एक ही घर में रहकर अलग अलग रहा करते थे।
बाबा साहेब बेटे की नाराजगी समझते थे, और वो ये भी जानते थे कि यशवंत राव कभी दलितों की लड़ाई में उनके साथ नहीं खड़े होंगे। जिसके कारण बाबा साहेब ने यशवंत राव को एक निजी प्रिटिंग प्रेस खोल कर दे दिया था ताकि यशवंत राव उसमें व्यस्त रहे। यशवंत राव ने भी बाबा साहेब की तरफ ध्यान देने के बजाए अलग रहना शुरु कर दिया और खुद को प्रिटिंग प्रेस के काम में झोंक दिया। अपनी मां, भाई, बहनों की मृत्यु और पिता की अनदेखी के कारण यशवंत राव और बाबा साहब के बीच कभी पिता पुत्र वाली करीबियां आ नहीं सकी। हालांकि यशवंत राव ने अपने पिता के राह कदमों पर चलकर बौद्ध धर्म को ही आत्मसात किया था।