22 मई 1987 की तारीख मेरठ के हाशिमपुरा वालों के लिए काला दिन लेकर आया। ये वहीं दिन था, जब नरसंहार में 42 लोगों की जान गोलियों से भूनकर ले ली गई और ये 42 मुस्लिम लोग थे। कहते हैं कि उनके मुस्लिम होने की वजह से ही उनकी जान ले ली गई। क्या हुआ था तब हाशिमपुरा में और क्यों आज भी उस घटना का दर्द नहीं जाता है? आइए इस नरसंहार की पूरी कहानी हम आपको बताते हैं…
जब हाशिमपुरा दंगा हुआ तो राजीव गांधी देश के पीएम थे जो दूरदर्शी, मिलनसार और युवा थे, उनकी नई सोच थी। तो वहीं यूपी में कांग्रेस के हिंदुत्ववादी कहे जाने वीर बहादुर सिंह की सरकार थी। 1986 में राम जन्मभूमि का ताला खोला गया था और फिर यहीं से शुरू हो गई, ध्रुवीकरण की पॉलिटिक्स जिस पर चलकर आगे कई घटनाएं हुई। बाबरी विध्वंस, मुंबई बम विस्फोट की घटना से लेकर बनारस और कानपुर के दंगे जैसे हालातों का पैदा होना हो।
क्या हुआ था हाशिमपुरा में?
दरअसल, मेरठ में अप्रैल 1987 में दंगे हुए जिसके बाद पीएसी भी बुलाई गई। इसे माहौल शांत होने पर इसे हटा दिया गया। 19 मई को फिर से दंगे भड़क गए और इस दौरान 10 लोगों की जान चली गई। इस पर माहौल को नॉर्मल करने के लिए सेना ने फ्लैग मार्च किया और फिर से CRPF और पीएसी की कंपनियां को तैनात कर दिया गया और कर्फ्यू लगा दिया गया पूरे एरिया में। फिर अगले दिन गुलमर्ग सिनेमा हॉल भीड़ ने आग के हवाले कर दिया। अब तक मारे गए लोगों की संख्या 22 जा पहुंची थी और 20 मई को देखते ही गोली चलाने और मारने के आदेश कर दिए गए।
22 मई, 1987 की रात को जो हुआ वो दिमाग हिल देने वाला वाक्या था। पीएसी के प्लाटून कमांडर थे सुरिंदर पाल सिंह जब वो मेरठ के हाशिमपुरा मोहल्ला 19 जवानों को साथ लेकर पहुंचे। अलविदा की नमाज़ अदा की जा चुकी थी। पहले तो सेना ने करीब करीब 644 लोगों को धरा था जिनमें हाशिमपुरा के 150 मुस्लिम युवा की संख्या थी। जिसको पीएसी को सौंप दिया गया और किया ये भी गया कि औरतों और बच्चों को इस भीड़ से अलग कर घर जाने को कह दिया गया। कुछ 50 की संख्या में लोग बचे थे जिनको पीएसी अपने साथ ले गई। इनमें ज्यादातर जो लोग थे वो दिहाड़ी मजदूरी करते थे या फिर बुनकर थे।
पहले तो पुलिस की पिटाई में इनमें से कई की जान गई और जो बचे थे वो ट्रक में छिपकर बैठे थे। ट्रक मुरादनगर के गंगा ब्रिज पर गया जहां पर पहले तो तीन को गोली मार दिया गया और गंगा में बहा दिया गया और फिर जितने बचे थे वो अपनी जा बचाने की कोशिश में हाथापाई करने लगे लेकिन कोशिश नाकाम रही और राइफल की गोलियों से सबको एक एक कर भून डाला गया और लाशें नहर में बहा दिया गया। ये कुल 42 की संख्या में थे और इस क्रूर तरीके से नरसंहार को अंजाम दे दिया गया।
मामले के बाद क्या हुआ?
दरअसल, नरसंहार के बाद राजीव गांधी हाशिमपुरा के दौरे पर गए। जवाब तलब वीर बहादुर सिंह को भी किया गया, लेकिन 1988 तक वो सीएम के पद पर बने ही रहे। एक जांच टीम का भी गठन किया गया जस्टिस राजिंदर सच्चर, आइ.के. गुजराल जिसमें शामिल थे और साल 1994 में इस समिति ने अपनी रिपोर्ट दी। फिर साल 1995 के 1 जून 19 अधिकारियों को मामले में आरोपी मानकर केस चलाया गया।
फिर शुरू हुआ तारीख पर तारीख का सिलसिला। वक्त बीता और सदी भी बदली और आया 2015 का 21 मार्च जब 16 आरोपियों को दिल्ली की तीस हज़ारी कोर्ट ने ‘बाइज्जत बरी’ किया और जो तीन आरोपी की मौत हो चुकी थी इस दौरान। फिर दिल्ली हाई कोर्ट ने लोअर कोर्ट के फैसले को पलट दिया और 16 पुलिसकर्मियों को उम्रकैद की सजा दे दी। 27 साल का वक्त और 161 गवाहों के बयान ये तक साफ साफ तय नहीं कर पाए कि आखिर नहर में बहाए गए वो शवों के जिम्मेदार कौन लोग थे आखिर हालांकि बाद में सरकार की तरफ से पीड़ित परिवारों को 5-5 लाख का मुआवजा दे दिया गया।