बाबा साहेब भीम राव अंबेडकर एक महान शख्सियत थे। आज भी कई कई मौकों पर बाबा साहेब और उनके विचारों को लोग याद करते रहते हैं। अंबेडकर ने हमेशा ही दलितों और पिछड़े लोगों के लिए लड़ाई लड़ी। भारत का संविधान लिखने वाले अंबेडकर चुनाव लड़ने के बावजूद कभी चुनकर संसद तक नहीं पहुंच सके। बाबा साहेब दो बार आम चुनाव लड़े, लेकिन वो कभी जीत नहीं पाए।
बात साल 1952 की है, जब बाबा साहेब ने आजादी के बाद भारत का पहला लोकसभा चुनाव लड़ा था। उत्तरी मुंबई से अंबेडकर चुनावी मैदान में उतरे थे, लेकिन इसमें उन्हें हार का सामना करना पड़ा था। इससे पहले अंबेडकर, जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में बनी देश की पहली अंतरिम सरकार में कानून मंत्री थे। हालांकि नेहरू सरकार में अनुसूचित जातियों की उपेक्षा से नाराज होकर अंबेडकर ने 27 सितंबर 1951 को इस्तीफा दे दिया था। फिर अंबेडकर शेड्यूल कास्ट फेडरेशन को खड़ा करने में जुट गए।
इसके एक साल बाद देश में पहले आम चुनाव हुए, जिसमें अंबेडकर की पार्टी ने भी हिस्सा लिया। पार्टी ने चुनाव में 35 प्रत्याशी उतारे, लेकिन जीत सिर्फ दो को ही मिली। अंबेडकर ने खुद ही उत्तरी मुंबई सीट से चुनाव लड़ा। बाबा साहेब के खिलाफ कांग्रेस ने एनएस काजोलकर को मैदान में उतारा था। काजोलकर दूध का कारोबार करने वाले छोटे-मोटे कारोबार करने वाले थे और उन्होंने ही इन चुनावों में बाबा साहेब को पटखनी दे दी। चुनाव में अंबेडकर को 1 लाख 23 हजार से ज्यादा वोट मिले थे, जबकि काजरोलकर ने 1 लाख 37 हजार से ज्यादा वोट हासिल किए थे। काजोलकर पहले अंबेडकर के पूर्व सहयोगी हुआ करते थे।
महाराष्ट्र बाबा साहेब अंबेडकर की कर्मभूमि थी। यहां से हारना उनके लिए एक बड़ा झटका था। इसके बाद अंबेडकर ने एक और बार चुनाव लड़ा था। 1954 में भंडारा में हुए लोकसभा उपचुनाव एक बार फिर अंबेडकर ने लोकसभा का चुनाव लड़ा था, लेकिन इस बार भी उन्हें हार का ही मुंह देखना पड़ा। उपचुनाव में अंबेडकर बुरी तरह हारे थे। वो तीसरे नंबर पर रहे। वहीं देश में दूसरे लोकसभा चुनाव होने से पहले ही बाबा साहेब की मृत्यु हो गई। 6 दिसम्बर को 1956 में उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कह दिया। कुछ इस तरह बाबा साहेब अंबेडकर ने दो बार चुनाव तो लड़ा, लेकिन जीत उन्हें एक भी बार नहीं मिली।