जब मात्र 21 सिखों ने 10 हजार सैनिकों को चटाई थी धूल। सिखों की बहादुरता की इस कहानी से गर्व से सीना फूल उठेगा। सिख धर्म की महानता और बहादुरी के किस्से तो आपने कई बार सुने होंगे, चाहे वोदुश्मनों के छक्के छुड़ाना हो या फिर हंसते हंसते देश के लिए कुर्बान होना। बात जब देश की रक्षा की होती है, तो फिर सिखों का नाम सबसे पहले लिया जाता है।
सिखों की बहादुरी पर अंग्रेजी हुकुमत को भी पूरी भरोसा था और इसलिए अंग्रेजी हुकुमत ने खुद 18वीं सदी में सिख रेजिमेंट बनाया, ताकि पंजाब के रास्ते बाहरी दुश्मनों से लोहा लिया जा सकें। वो जानते थे कि बाहरी ताकतों से भारत की रक्षा कोई कर सकता है तो वो केवल सिख ही हैं। इन्हीं ताकतों से लोहा लेने और 10000 अफगानियों को अकेले धूल चटाने वाले 21 सिखों की बहादुरी की कहानी बताता है सारागढ़ी का युद्ध।
वो युद्ध जिसके बाद अंग्रेजी हुकूमत ने सिख रेजिमेंट को सबसे बहादुर रेजिमेंट होने के खिताब से नवाजा था। सारागढ़ी का युद्ध इतिहास के 8 सबसे बेहतरीन युद्ध के लिए जाना जाता है… लेकिन क्कयोंरती है अंग्रेजी हुकुमत भी सारागढ़ी के बहादुरों को सलाम? आखिर क्या है इसका इतिहास? जिसे आज भी हर साल 12 सितंबर को सारागढ़ी दिवस के नाम से मनाते है।
आज हम उन 21 बहादुर सिखो की कहानी बताते है आपको, जिसमें से कुछ तो सैनिक भी नहीं थे, लेकिन जब बात मां भारती की रक्षा की हुई तो करची छोड़कर हथियार थामने से पीछे नहीं हुए।
क्या है इस युद्ध की पूरी कहानी?
ये बात करीब 1897 की है…ब्रिटिश भारत पर पूरी तरह से हावी हो चुके थे, और वो अफगानिस्तान और भारत से जुड़े पड़ोसी देशों में भी अधिकार पाने के इरादे से लगातार युद्ध कर रहे थे। इसी दौरान पंजाब के सारागढ़ी में दो किले हुआ करते थे, गुलिस्तान का किला और लोकहार्ट का किला। गुलिस्तान का किला सीमा के पास था और ब्रिटिश सेना के संचार का किला था, सारागढ़ी के पास होने के कारण ये अंग्रेजी हुकूमत के लिए काफी अहम था। इस किले की सुरक्षा के लिए और बाहरी ताकतों से इसे बचाने के लिए यहां पर 21 सिख सैनिकों को तैनात किया गया, जो 36 सिख रेजिमेंट का हिस्सा थे।
हजारों अफगानियों ने कर दिया था हमला और…
ब्रिटिश लगातार अफगानिस्तान पर कब्जा करने के इरादे से उस पर हमला कर रहे थे, जिससे गुस्साए अफगानियों ने गुलिस्तान किला पर हमला करके उसे हथियाने की तैयारी की। 12 सितंबर 1897 की सुबह जब सिख सैनिक जागे तो जो उनके सामने था, वो शायद उसके लिए तैयार नहीं थे, लेकिन बात यहां मातृभूमि की रक्षा की थी, तो पीछे कैसे होते।
सभी सैनिक नहीं थे, फिर भी लगाई जान की बाजी
सिख सैनिकों ने करीब 10 हजार अफगानी सैना को अपनी तरफ तेजी से आते देखा। उन्होंने तुरंत लोकहार्ट किले में मदद के लिए संदेश भेजा, लेकिन वहां से मदद नहीं मिली क्योंकि इतने कम समय में भारी तादाद में सैना नहीं भेजी जा सकती थी। बल्कि ये कहा गया कि वो पीछे लौट आए। लेकिन सिख सैनिक भी पीछे हटने को तैयार नहीं..उनके आगे करो या मरो की स्थिति थी। वो अपनी अपनी बंदूको के साथ किले के ऊपर तैनात हो गए। इन 21 सिख सैनिकों में सभी लड़ाका ही नहीं थे बल्कि कुछ रसोइया थे और कुछ सफाई कर्मी। लेकिन यहां ये 21 एक साथ खड़े थे।
युद्ध शुरू हुआ। अफगानी सेना किले तक पहुंच गई थी,लेकिन दरवाजा खोल नहीं पाई, जिसके बाद अफगानियों ने किले की दीवार को तोड़ना शुरू कर दिया। किले की दीवार को तोड़ने में ज्यादा वक्त नहीं लगा और अफगानी सेना किले में घुसने लगी थी, लेकिन सिख सैनिक भी कहां पीछे रहने वाले थे। उन लोगों ने अपनी बंदूके छोड़कर तलवार से लड़ना शुरू कर दिया। लेकिन 10 हजार सेना 21 सिख सैनिकोंपर भारी पड़ने लगे। मगर फिर भी अपनी अंतिम सांस तक लड़ते रहे।
इन 21 सैनिकों ने अफगानी सेना के करीब 600 सिपाहियों को मार गिराया था। अफगानियों ने किले पर कब्जा तो कर लिया था, लेकिन तभी ब्रिटिश आर्मी वहां पहुंच गई और दो दिनों में ही अफगानी सेनाको धूल चटा दी। इस युद्ध में करीब 8400 लोग मारे गए थे। इस युद्ध के बाद ब्रिटिश पार्लियांमेंट ने भी 21 सिख सिपाहियों की बहादुरी की तारीफ की थी और उन सभी को ब्रिटिश आर्मी में सबसे उच्च सम्मान विक्टोरिया क्रोस जो कि भारत में परमवीर चक्र के बराबर की ओहदा रखता है, उससे सम्मानित किया गया। सारागढ़ी का युद्ध सिखों के मजबूत हौंसले और निडरता की कहानी है। ये युद्ध सिखों की महानता को और बढ़ाता है।