हमेशा दलितों के लिए लड़ाई और संघर्ष करने वाले डॉ भीमराव अंबेडकर की छवि भले ही एक दलित महानायक के रूप में उभरकर आती हो लेकिन वो साथ ही सामज की महिलाओं के रहन सहन और शिक्षा पर भी उतना ही जोर देते थे जितना दलितों पर. उनका मानना था कि किसी भी समाज का मूल्यांकन इसी आधार पर किया जा सकता है कि उस समाज में महिलाओं की स्थिति कैसी है. यूँ तो समय-समय पर अलग-अलग महापुरुषों ने महिलाओं के अधिकारों पर ज़ोर दिया लेकिन भारत के मूल दस्तावेज़ों में इन अधिकारों को दर्ज कराने का काम बाबासाहेब ने किया, वह भी कड़े विरोध के बावजूद.
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दुनिया की लगभग आधी आबादी महिलाओं की है, इसलिए जब तक उनका समुचित विकास नहीं होता कोई भी देश चहुंमुखी विकास नहीं कर सकता. डॉ. अंबेडकर का महिलाओं के संगठन में ज्यादा विश्वास था उनका कहना था कि यदि महिलाएं एकजुट हो जाएं तो समाज को सुधारने के लिए क्या नहीं कर सकती हैं?
‘हिंदू कोड बिल’ का पास होना
वे लोगों से कहा करते थे कि महिलाओं और अपने बच्चों को शिक्षित कीजिए. उन्हें महत्वाकांक्षी बनाइए. उनके दिमाग में ये बात डालिए कि महान बनना उनकी नियति है. महानता केवल संघर्ष और त्याग से ही प्राप्त हो सकती है. वायसराय की कार्यकारी परिषद में श्रम सदस्य रहते हुए डॉ. अंबेडकर ने पहली बार महिलाओं के लिए प्रसूति अवकाश (मैटरनल लिव) की व्यवस्था की.
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संविधान प्रारूप समिति के अध्यक्ष के रूप में संविधान निर्माताओं में उनकी अहम भूमिका थी. संविधान में सभी नागरिकों को बराबर का हक दिया गया है. और तो और संविधान के अनुच्छेद 14 में यह प्रावधान है कि किसी भी नागरिक के साथ लिंग के आधार पर भेदभाव नहीं किया जा सकता. आजादी मिलने के साथ ही महिलाओं की स्थिति में सुधार शुरू हुआ. आजाद भारत के पहले कानून मंत्री के रूप में उन्होंने महिला सशक्तीकरण के लिए कई कदम उठाए. सन् 1951 में उन्होंने ‘हिंदू कोड बिल’ संसद में पेश किया.
पैत्रिक सम्पति में बराबरी की हिस्सेदारी
डॉ. अंबेडकर हमेशा कहा करते थे कि मैं हिंदू कोड बिल पास कराकर भारत की समस्त नारी जाति का कल्याण करना चाहता हूं. मैंने हिंदू कोड पर विचार होने वाले दिनों में पतियों द्वारा छोड़ दी गई अनेक युवतियों और प्रौढ़ महिलाओं को देखा. उनके पतियों ने उनके जीवन-निर्वाह के लिए नाममात्र का चार-पांच रुपये मासिक गुजारा बांधा हुआ था. वे औरतें ऐसी दयनीय दशा के दिन अपने माता-पिता, या भाई-बंधुओं के साथ रो-रोकर व्यतीत कर रही थीं.
उनके अभिभावकों के हृदय भी अपनी ऐसी बहनों और पुत्रियों को देख-देख कर शोकसंतप्त रहते थे. बाबा साहेब का करुणामय हृदय ऐसी स्त्रियों की करुण गाथा सुनकर पिघल जाता था.
कुछ लोगों के विरोध की वजह से हिंदू कोड बिल उस समय संसद में पारित नहीं हो सका, लेकिन बाद में अलग-अलग भागों में जैसे हिंदू विवाह कानून, हिंदू उत्तराधिकार कानून और हिंदू गुजारा एवं गोद लेने संबंधी कानून के रूप में अलग-अलग नामों से पारित हुआ जिसमें महिलाओं को पुरुषों के बराबर अधिकार दिए गए.
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लेकिन डॉ. अंबेडकर का सपना सन् 2005 में साकार हुआ जब संयुक्त हिंदू परिवार में पुत्री को भी पुत्र के समान कानूनी रूप से बराबर का भागीदार माना गया. इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि पुत्री विवाहित है या अविवाहित. हर लड़की को लड़के के ही समान सारे अधिकार प्राप्त हैं. संयुक्त परिवार की संपत्ति का विभाजन होने पर पुत्री को भी पुत्र के समान बराबर का हिस्सा मिलेगा चाहे वो कहीं भी हो. इस तरह महिलाओं को आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाने में डॉ.अंबेडकर ने बहुत सराहनीय काम किया.
वयस्क मताधिकार पर अंबेडकर
‘रात और दिन, कभी भी स्त्री को स्वतंत्र नहीं होने देना चाहिए. उन्हें लैंगिक संबंधों द्वारा अपने वश में रखना चाहिए, बालपन में पिता, युवावस्था में पति और बुढ़ापे में पुत्र उसकी रक्षा करें, स्त्री स्वतंत्र होने के लायक नहीं है.’ मनु स्मृति (अध्याय 9, 2-3) में लिखी यह बात बताती है कि उस वक़्त महिलाओं की क्या दशा रही होगी. हमारा समाज सदियों से मनुवादी संस्कृति से ग्रसित रहा है. मनुस्मृति काल में नारियों के अपमान और उनके साथ अन्याय की यह पराकाष्ठा थी.
आज भी जब पूरा देश महिला सुरक्षा और ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’ जैसे सशक्त संदेशों को दूर-दूर तक पहुँचाने के दावे करता है, ऐसे में इस बात को जानना और भी ज़रूरी हो जाता है कि जो अधिकार बाबासाहेब अंबेडकर ने महिलाओं को दिए उन अधिकारों को वे कितना जानती हैं.
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