लंदन से की पढ़ाई… कौशल की नहीं थी कमी… फिर भी दलित होने के कारण बाबा साहेब को नौकरी के लिए भटकना पड़ा था

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Despite studying from London, Baba Saheb had to struggle to get a job just because he was a Dalit
Source: Google

6 अप्रैल 1891 को महू, मध्य प्रदेश में जन्मे भीमराव रामजी अंबेडकर अपने पिता की सरकारी नौकरी के कारण बहुत गरीब परिवार से नहीं थे, लेकिन क्योंकि वह हिंदू महार जाति से थे, जिसे अछूत माना जाता था, इसलिए उन्हें बचपन से ही भेदभाव और सामाजिक प्रतिरोध का सामना करना पड़ा। जिसके बाद उन्होंने इस भेदभाव को मिटाने के बारे में सोचा। अम्बेडकर पढ़ाई में बहुत अच्छे थे। उन्होंने एल्फिंस्टन कॉलेज, बॉम्बे से स्नातक की उपाधि प्राप्त की और 1912 तक, वह बॉम्बे विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र और राजनीति विज्ञान में कला स्नातक भी बन गए। 1913 और 1916 के बीच, उन्होंने कोलंबिया विश्वविद्यालय, न्यूयॉर्क से अर्थशास्त्र में एमए की डिग्री प्राप्त की। फिर उन्होंने लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स से डॉक्टरेट की डिग्री हासिल की। उन्हें विदेश भेजने के पीछे गुजरात के वडोदरा के महाराजा सयाजीराव गायकवाड़ तृतीय का हाथ था। उन्होंने बाबा साहेब को विदेश में पढ़ाई करने में मदद की। विदेश जाने से पहले उन्होंने महाराजा को लिखे पत्र में वादा किया था कि विदेश से शिक्षा प्राप्त करने के बाद वे यहीं आकर काम करेंगे। लेकिन जब वह विदेश से पढ़ाई करके भारत लौटे तो उन्होंने अपने जीवन में एक ऐसा दौर देखा जिसकी उन्होंने कभी सपने में भी कल्पना नहीं की थी।

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यूरोप और अमेरिका में अपने पांच साल के प्रवास के दौरान, अंबेडकर यह पूरी तरह से भूल गए थे कि वह एक अछूत हैं और भारत में अछूत को लेकर भेदभाव किया जाता है। इन्हीं भावनाओं के साथ जब वे अपने वादे के मुताबिक विदेश से पढ़ाई करके भारत लौटे तो उन्हें एक बार फिर जातिवाद का सामना करना पड़ा। अंबेडकर को उनकी जाति के कारण बड़ौदा में कोई कमरा देने को तैयार नहीं था। काफी मशक्कत के बाद उन्होंने एक पारसी धर्मशाला में रहने का फैसला किया।

खुलेआम हुए छुआछूत के शिकार

बाबा साहेब की किताब वेटिंग फॉर वीजा के मुताबिक वे वडोदरा में सिर्फ 11 दिन ही रह पाए थे। इतने ही दिनों तक उन्होंने बड़ौदा के महाराजा के लिए काम किया लेकिन वहां भी उन्हें छुआछूत का सामना करना पड़ा। ब्राह्मण क्लर्क तथा अन्य अधीनस्थ कर्मचारी खुलेआम उनके विरुद्ध अभद्र भाषा का प्रयोग करते थे। खुलेआम छुआछूत की जाती थी। कागजात की फाइल दूर से अम्बेडकर की ओर फेंकी गई ताकि संपर्क से बचा जा सके। यह सब सहते हुए अम्बेडकर अपना काम करते रहे। इसी बीच, पारसी रेस्ट हाउस में जब लोगों को भीमराव अंबेडकर की जाति के बारे में पता चला तो वे धर्मशाल के बाहर जमा हो गए। उन सभी के हाथों में लाठियां थीं। लोगों ने कहा कि यह स्थान अपवित्र हो गया है। बाबा साहेब को शाम तक खाली करके चले जाने को कहा गया।

अमेरिकी मूल की भारतीय नागरिक और मशहूर समाजशास्त्री गेल ओमवेट अपनी किताब ‘अम्बेडकर टुवार्ड्स एन एनलाइटेंड इंडिया’ में लिखती हैं, ”जिस दिन पारसियों को अंबेडकर की जाति के बारे में पता चला, स्थिति गंभीर हो गई। पारसियों के एक क्रोधित समूह ने उन्हें मारने पर आमादा होकर उनके आवास को घेर लिया। घर के मालिक ने तुरंत अंबेडकर को अपने घर से बाहर निकाल दिया।”

नौकरी के लिए भटके अंबेडकर

भीमराव अंबेडकर बड़ी मुसीबत में पड़ गए, उन्होंने बड़ौदा में ही एक सरकारी बंगला खरीदने की सोची लेकिन इससे ‘अछूतों’ की समस्या ख़त्म नहीं हुई। 17 नवंबर 1917 को डॉ. अम्बेडकर को अपनी जान बचाने के लिए बड़ौदा राज्य से भागना पड़ा। इसके बाद विदेश से डिग्री लेकर आए अंबेडकर को नौकरी के लिए दर-दर भटकना पड़ा। विभिन्न सरकारी और निजी संगठनों द्वारा रिजैक्ट किए जाने के बाद, उन्हें सिडेनहैम कॉलेज में राजनीतिक अर्थव्यवस्था के प्रोफेसर के रूप में नियुक्त किया गया। यहां उन्होंने दो सा तक काम किया। इसके बाद वह अपनी पीएचडी पूरी करने के लिए लंदन लौट आए।

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