पंजाब के लुधियाना जिले के दीवाला गांव (Diwala village) के किसान सुखजीत सिंह (Farmer Sukhjit Singh) ने पर्यावरण संरक्षण और उन्नत कृषि तकनीकों के इस्तेमाल के मामले में मिसाल कायम की है। करीब 10 साल पहले 55 वर्षीय सुखजीत सिंह ने पराली न जलाने की कसम खाई थी। सुखजीत सिंह की पहल और जागरूकता के चलते गांव में पराली जलाने की पुरानी और हानिकारक प्रथा पूरी तरह खत्म हो गई है, जिससे न सिर्फ गांव का पर्यावरण सुधर रहा है, बल्कि दूसरे किसानों के लिए भी प्रेरणादायी मिसाल कायम हुई है।
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बीबीसी की एक रिपोर्ट के मुताबिक, कृषि विज्ञान केंद्र (Agricultural Science Centre) ने इस गांव को साल 2018 में गौद ले लिया। इस गांव में 600 एकड़ में धान की खेती की जाती है, लेकिन अब इस गांव के ज्यादातर किसान फसल कटने के बाद पराली जलाने की बजाय उसे जोतते हैं। इस काम का श्रेय सुखजीत सिंह को जाता है।
पराली जलाने की समस्या- Ludhiana stubble burning Problem
पंजाब और हरियाणा के कई इलाकों में हर साल फसल कटने के बाद खेतों में पराली (धान की भूसी) जलाने की प्रथा आम है। हालांकि यह प्रथा समय और श्रम बचाने के लिए अपनाई जाती है, लेकिन इससे होने वाले प्रदूषण का पर्यावरण और मानव स्वास्थ्य पर गंभीर असर पड़ता है। पराली जलाने से हवा में जहरीला धुआँ निकलता है, जिससे स्मॉग की समस्या बढ़ती है और सांस संबंधी बीमारियों का खतरा भी बढ़ता है।
सुखजीत सिंह की पहल
एक जागरूक किसान होने के नाते सुखजीत सिंह ने महसूस किया कि पराली जलाने की समस्या से निपटने के लिए कुछ ठोस कदम उठाए जाने की आवश्यकता है। उन्होंने अन्य किसानों को पराली जलाने के खतरों के बारे में जागरूक किया और इसका समाधान खोजने में भी मदद की। सुखजीत ने आधुनिक कृषि उपकरणों और तकनीकों का उपयोग करके पराली को खेतों में ही मिट्टी में मिलाने का सुझाव दिया, जिससे मिट्टी की उर्वरता बढ़ती है और प्रदूषण (Stubble Burning Pollution) भी कम होता है। लेकिन शुरुआत में किसी ने उनकी बात पर गौर नहीं किया।
गांव वालों ने उड़ाया सुखजीत का मजाक
कई गांव वालों ने सुखजीत का मजाक उड़ाया और कहा कि आप हैप्पी सीडर मशीन पर इतना पैसा खर्च करते हैं, हम हैप्पी सीडर मशीन जितना ही काम एक रुपए की माचिस से कर सकते हैं और दो मिनट में सारी पराली जल जाती है और सब काम कुछ मिनट में निपट जाता है। लेकिन गांव वालों को पराली जलाने के बाद जमीन की गुणवत्ता को नुकसान पहुंचने का अहसास तब हुआ जब पंजाब कृषि विश्वविद्यालय (Punjab Agricultural University) गांव की कृषि भूमि का निरीक्षण किया। उन्होंने निरीक्षण में पाया कि बाकी किसानों के खेत से सुखजीत सिंह के खेतों में ऑर्गेनिक कार्बन 20 फीसदी ज्यादा है और इससे उनकी फसलों को फायदा हो रहा है।
सरकार और कृषि विभाग का सहयोग
सुखजीत सिंह की इस पहल को सरकार और कृषि विभाग से भी समर्थन मिला। उन्होंने किसानों को पराली प्रबंधन के लिए उपलब्ध सरकारी योजनाओं और उपकरणों के बारे में जानकारी दी। कृषि विभाग द्वारा सब्सिडी पर उपलब्ध कराए गए सुपर सीडर और हैपी सीडर जैसे आधुनिक मशीनों का उपयोग करके पराली को खेतों में ही मिलाया जा सकता है। यह तकनीक न केवल प्रदूषण रोकने में मदद करती है, बल्कि मिट्टी की गुणवत्ता भी सुधारती है, जिससे अगले सीजन की फसल अधिक उत्पादक होती है।
गांव में बदलाव
सुखजीत सिंह की इस पहल के बाद दीवाला गांव के अन्य किसानों ने भी पराली जलाना बंद कर दिया। उन्होंने देखा कि पराली जलाने से बचने के बाद उनके खेतों की मिट्टी में सुधार हुआ है और फसल की पैदावार भी बढ़ी है। अब दीवाला गांव पराली प्रबंधन के क्षेत्र में एक आदर्श गांव बन गया है, जहां किसानों ने टिकाऊ खेती के तरीके अपनाकर पर्यावरण के प्रति अपनी जिम्मेदारी को समझा है।
सुखजीत सिंह का संदेश
सुखजीत सिंह का मानना है कि अगर सभी किसान आधुनिक कृषि तकनीक और पर्यावरण के प्रति संवेदनशीलता अपनाएं तो पराली जलाने जैसी समस्याओं का आसानी से समाधान हो सकता है। उनका संदेश सिर्फ उनके गांव तक सीमित नहीं है, बल्कि पंजाब और देश भर के किसानों के लिए प्रेरणा का स्रोत है।
इस प्रकार सुखजीत सिंह की यह पहल दर्शाती है कि जागरूकता, तकनीकी ज्ञान और सहयोग से बड़ी से बड़ी समस्या का समाधान भी किया जा सकता है। दीवाला गांव के किसानों ने न सिर्फ अपने गांव को प्रदूषण मुक्त बनाया है, बल्कि स्वस्थ और समृद्ध भविष्य की ओर भी कदम बढ़ाया है।
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