अंग्रेजों से मिलने वाली पूरी आज़ादी के खिलाफ थे अंबेडकर, भारत छोड़ो आंदोलन में भी नहीं लिया हिस्सा

Ambedkar was against complete freedom from the British
Source: Google

आजादी की लड़ाई में जहां हर कोई अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन कर रहा था, वहीं डॉ. भीमराव अंबेडकर ही एकमात्र ऐसे व्यक्ति थे, जो अंग्रेजों से पूर्ण आजादी के खिलाफ थे। साथ ही, अंबेडकर आजादी के लिए होने वाले प्रदर्शनों और आंदोलनों के खिलाफ थे। उन्होंने कांग्रेस और महात्मा गांधी के स्वतंत्रता संग्राम में शामिल होने से इनकार कर दिया था। डॉ. अम्बेडकर का मानना था कि देश और समाज अभी तत्काल आज़ादी के लिए पूरी तरह तैयार नहीं है। आइए जानते हैं कि अंबेडकर आजादी के खिलाफ क्यों थे।

और पढ़ें: डॉ भीमराव अंबेडकर के बारे में ये महत्वपूर्ण बातें हर किसी को जानना चाहिए? 

महात्मा गांधी और डॉ. अंबेडकर के बीच टकराव

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी और भारतीय संविधान लिखने वाले डॉ. भीमराव अंबेडकर के बीच अक्सर मनमुटाव रहता था। पहली मुलाक़ात से ही दोनों के बीच टकराव शुरू हो गया था। 14 अगस्त 1931 को मुंबई (तब बॉम्बे) के मणि भवन में हुई थी। गांधीजी ने स्वयं उन्हें मिलने के लिए बुलाया था। दोनों की पहली मुलाकात इतनी तनावपूर्ण थी कि इसके बाद हर मुद्दे पर उनके बीच विवाद होने लगा।

जिसके बाद 1955 में डॉ. अंबेडकर ने महात्मा गांधी को लेकर बीबीसी को दिए एक इंटरव्यू में साफ तौर पर कहा, ‘गांधी जी कभी एक सुधारक नहीं थे, वो बिलकुल रूढ़िवादी हिन्दू थे। उन्होंने पॉलिटिशियन की तरह काम किया। मैं उन्हें महात्मा कहने से भी इनकार करता हूं।’

अंबेडकर के निर्णय के खिलाफ थे गांधी जी

अंबेडकर की जीवनी के अनुसार, वायसराय काउंसिल के सदस्य के रूप में डॉ. अंबेडकर पर श्रम विभाग की भी जिम्मेदारी थी। वायसराय की भूमिका कैबिनेट मंत्री के समकक्ष थी। अंबेडकर ने कई मानदंडों को संशोधित किया और कानून बनाए। दलितों को दो वोट का अधिकार भी दिया गया। इसमें वह एक वोट अपने दलित समुदाय को और एक सामान्य प्रत्याशी के लिए करता था।

गांधीजी दलितों के उत्थान के पक्ष में थे, लेकिन वे दलितों के लिए अलग-अलग चुनाव और उनके दो वोटों के अधिकार के ख़िलाफ़ थे। उन्हें लगता था कि इससे दलितों और ऊंची जातियों के बीच दूरियां बढ़ जाएंगी और हिंदू समाज बिखर जाएगा।

गांधी जी ने शुरू किया अनसन

दलितों के दो वोट के विरोध में गांधीजी ने पुणे की यरवदा जेल में अनशन शुरू कर दिया। अनशन के कारण महात्मा गांधी का स्वास्थ्य धीरे-धीरे बिगड़ने लगा। जिसके बाद देशभर में भीमराव अंबेडकर के पुतले जलाए जाने लगे। उनके खिलाफ विरोध प्रदर्शन हुए। कई स्थानों पर दलित बस्तियों को जला दिया गया।

जिसके चलते 24 सितंबर 1932 को महात्मा गांधी और बाबा साहेब अंबेडकर के बीच पूना पैक्ट पर हस्ताक्षर किए गए। जिसके तहत दलितों के लिए अलग-अलग चुनाव और दो वोटों का अधिकार समाप्त कर दिया गया। हालांकि, बदले में प्रांतीय विधानमंडलों में दलितों के लिए आरक्षित सीटों की संख्या 71 से बढ़ाकर 147 और केंद्रीय विधानमंडल में कुल सीटों का 18 प्रतिशत कर दी गई।

अंबेडकर एकसाथ पूरी आजादी के खिलाफ थे

ब्रिटिश काल के दौरान अपने पद को लेकर डॉ. भीमराव अंबेडकर का मानना था कि ब्रिटिश शासन के दौरान दलितों के उत्थान के लिए कितना कुछ करके, वह जाति विभाजन को पाटने और लोगों के दृष्टिकोण को प्रभावित करने में सक्षम होंगे। उन्हें लग रहा था कि समाज अभी पूरी आजादी के लिए तैयार नहीं है।

द्वितीय विश्व युद्ध से डर गए थे डॉ अंबेडकर

दूसरे विश्व युद्ध के दौरान भारत छोड़ो आंदोलन शुरू हो गया था। जिसे लेकर उन्होंने कहा था कि इस आंदोलन के दौरान आराजकता को बंद किया जाए। अंबेडकर उस समय द्वितीय विश्व युद्ध से भयभीत थे। उनका मानना था कि नाज़ी, इतालवी फासीवादी और जापानी अंग्रेजों से अधिक खतरनाक थे। उन्हें डर था कि अंग्रेजों के जाने के बाद जापानी देश पर कब्ज़ा कर लेंगे। इसीलिए डॉक्टर अंबेडकर ने महात्मा गांधी के ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ में भी शामिल होने से मना कर दिया था।

आजादी के आंदोलन से अलग हुए अंबेडकर

8 अगस्त 1942 को जब गांधीजी ने बंबई के गोवालिया मैदान में हजारों लोगों के सामने भारत छोड़ो आंदोलन शुरू करते हुए ‘करो या मरो’ का नारा दिया तो ब्रिटिश शासन की नींव हिल गई। अंग्रेज घबरा गये और गांधीजी, सरदार पटेल तथा नेहरूजी को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया। इसके बाद यह आंदोलन पूरे देश में और तेजी से फैल गया।

कई लोगों ने वायसराय का पद भी छोड़ दिया था, लेकिन डॉ. भीमराव अंबेडकर ने न केवल आंदोलन में भाग लेने से इनकार कर दिया, बल्कि वायसराय का पद भी छोड़ने से इनकार कर दिया।

और पढ़ें: बाबा साहेब अंबेडकर के इन कामों को कोई मिटा नहीं सकता, सदियों तक याद किए जाएंगे 

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here