चीन आज जिस तरह से भारत पर हावी होने की कोशिश कर रहा है, उसके बारे में संविधान निर्माता डॉ. भीमराव अंबेडकर ने भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू को पहले ही आगाह कर दिया था। हालांकि, उनकी बातों को इतनी गंभीरता से नहीं लिया गया। बाबा साहब अंबेडकर की चीन नीति और पंडित नेहरू के ‘चीन प्रेम’ के बारे में कई ऐसी बातें कही गई हैं जिनके बारे में आप भी नहीं जानते होंगे। आज जिस तरह से भारत और चीन के बीच सीमा पर तनाव जारी है, इसकी शुरुआत 1949 में चीन में कम्युनिस्ट क्रांति के साथ ही हो गई थी। चीन ने धीरे-धीरे न सिर्फ मंचूरिया, दक्षिण मंगोलिया, युन्नान, पूर्वी तुर्किस्तान, मकाऊ, हांगकांग, पारासेल्स और तिब्बत पर कब्जा कर लिया। 1962 के हमले में लद्दाख के पामीर पठार पर भी कब्ज़ा कर लिया। डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने चीनी साम्यवादी साम्राज्यवाद के इस खतरे के प्रति समय रहते आगाह कर दिया था। डॉ. अम्बेडकर ने संसद में चीन को लेकर दो बार चेतावनी दी थी। पहला अवसर 1951 में हिंदू कोड बिल पर कानून मंत्री के रूप में उनका इस्तीफा था। फिर दूसरा मौका 26 अगस्त 1954 को आया। तब वे राज्यसभा सदस्य थे। तो क्या भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने चीन के संबंध में बाबा साहेब अम्बेडकर की बात न मानकर सचमुच गलती की थी? आइये जानते हैं।
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बाबा साहेब की भविष्यवाणी!
चीन के ट्रैक रिकॉर्ड और उसके विस्तारवादी दृष्टिकोण को देखते हुए, बाबा साहब ने पहले ही कहा था कि भारत के पहले प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू की कम्युनिस्ट चीन के साथ जुड़ाव की नीति एक गलती थी, और इसके बजाय भारत को अपनी विदेश नीति को अमेरिका के साथ जोड़ना बेहतर होता। और जोड़ा भी जा सकता था, क्योंकि दोनों देश लोकतांत्रिक हैं।
इतिहास पर नजर डालें, खासकर 1962 के युद्ध और चीन द्वारा अक्साई चिन पर कब्जे के बाद, तो पता चलता है कि अंबेडकर की भविष्यवाणी सही साबित हुई थी। 1951 में लखनऊ विश्वविद्यालय के छात्रों को संबोधित करते हुए बाबा साहेब अंबेडकर ने चीन का जिक्र करते हुए कहा था कि, ‘भारत को संसदीय लोकतंत्र और तानाशाही की साम्यवादी पद्धति के बीच चयन करना होगा और फिर अंतिम निर्णय पर पहुंचना होगा।’ इसके साथ ही बाबा साहब अंबेडकर नेहरू के ‘हिंदी-चीनी भाई भाई’ दृष्टिकोण के ख़िलाफ़ थे और भारत की तिब्बत नीति से असहमत थे। साथ ही, अंबेडकर का मानना था कि भारत को किसी वैश्विक शक्ति के अच्छे इरादों का इंतजार नहीं करना चाहिए, बल्कि भारत को अपनी सामरिक शक्ति को मजबूत करने के लिए काम करना चाहिए।
पंचशील सिद्धांत के खिलाफ थे अंबेडकर
बाबा साहेब 29 अप्रैल 1954 को भारत और चीन के बीच हुए पंचशील सिद्धांत के भी खिलाफ थे और उनका मानना था कि, राजनीति में पंचशील आदर्शों के लिए कोई स्थान नहीं है। उनका मानना था कि भारत ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में स्थायी सीट और व्यावहारिक तिब्बत नीति जीतने के लिए कड़ी मेहनत की होगी। चीन पर भरोसा करने के बजाय, अंबेडकर को लगा कि लोकतंत्र की प्राकृतिक समानता पर आधारित भारत-अमेरिका संबंध भारत को विदेशी सहायता प्रदान करेंगे और राष्ट्रीय बोझ कम करेंगे।
चीन के विस्तारवाद के खिलाफ चेतावनी
देखा जाए तो चीन तिब्बत, पूर्वी तुर्कमेनिस्तान, दक्षिणी मंगोलिया के अलावा हांगकांग और ताइवान में भी किसी न किसी रूप में अपनी विस्तारवाद की नीति अपना चुका है। जबकि पूरी दुनिया अंतरराष्ट्रीय कानूनों का उल्लंघन करते हुए दक्षिण चीन सागर में चीन की हालिया और स्पष्ट विस्तारवाद नीति को बड़ी चिंता के साथ देख रही है, दक्षिण एशिया में छोटे पड़ोसी देशों में इसकी घुसपैठ पर कम ध्यान दिया गया है। नेपाल और भूटान इसके उदाहरण हैं। नेपाल के साथ दोस्ती के अपने दावे के बावजूद, चीन ने “सलामी स्लाइसिंग” के माध्यम से नेपाल के कुछ हिस्सों पर सफलतापूर्वक कब्जा कर लिया है। चीन ने भूटान को भी नहीं बख्शा, जो भारत के उत्तर-पूर्व में स्थित एक छोटा सा देश है। बाबा साहेब ने इस पर अपने विचार उसी समय व्यक्त किये थे जब भारत आजाद हुआ था और पंडित नेहरू की सरकार भारतीय विदेश नीति का निर्धारण कर रही थी।
चीन पर बाबा साहेब के विचार
वहीं बाबा साहिब ने ये तक कहा था कि, ‘जब तक उत्तरी सीमा भारत-चीन के बजाय पहले जैसी भारत-तिब्बत नहीं होती, तब तक भारत के लिए चीन का ख़तरा हमेशा बना रहेगा। तिब्बत पर कब्जा करते समय माओ ने साफ कह दिया था कि तिब्बत तो चीन की हथेली की तरह है, जिसकी पांच उंगलियां लद्दाख, सिक्किम, नेपाल, भूटान और अरुणाचल हैं!’ इस बयान को हल्के में नहीं लेना चाहिए। इसके जरिए चीन दक्षिण पूर्व एशिया में उतरना चाहता है।
इन सब चीजों को देखते हुए कई विश्लेषकों का मानना है कि भारत ने चीन के खिलाफ विदेश नीति बनाने में गलती की थी और अगर पंडित नेहरू ने अंबेडकर के मुताबिक विदेश नीति बनाई होती तो शायद भारत की स्थिति कुछ और होती।
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