हाल ही में रिलीज हुई तमिल फिल्म ‘थंगालन’ ने दर्शकों को एक अलग तरह की कहानी से जोड़ा है, जिसमें स्थानीय जनजातियों और उनके संघर्षों को प्रमुखता से दिखाया गया है। इस फिल्म ने न केवल ऐतिहासिक संदर्भों को सामने रखा बल्कि भारतीय सिनेमा को एक नया नजरिया भी दिया। ऐसे में सवाल उठता है कि अगर थंगालन जैसी फिल्में बन सकती हैं तो बिरसा मुंडा, भीमा कोरेगांव और नांगेली जैसी ऐतिहासिक शख्सियतों और घटनाओं पर फिल्में क्यों नहीं बनाई जा सकतीं? आइए हम आपको बताते हैं कि इन विषयों पर फिल्में बनाना क्यों जरूरी है।
बिरसा मुंडा: आदिवासी समाज के महानायक
बिरसा मुंडा भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के एक महानायक थे, जिन्होंने अपने समुदाय के अधिकारों के लिए अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह किया। उनका संघर्ष केवल राजनीतिक नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और सामाजिक भी था। बिरसा मुंडा का प्रभाव इतना गहरा था कि उन्हें ‘धरती आबा’ यानी पृथ्वी के पिता के रूप में पूजा जाता है।
फिल्म बनाना क्यों जरूरी?
बिरसा मुंडा की कहानी आज के संदर्भ में न केवल महत्वपूर्ण है, बल्कि समाज को उनके योगदान से प्रेरणा लेने की जरूरत है। बिरसा मुंडा पर फिल्म बनाना आदिवासी समुदाय की संघर्ष यात्रा और उनके अनदेखे बलिदानों को सिनेमा के माध्यम से सामने लाने का एक बेहतरीन तरीका हो सकता है। साथ ही यह फिल्म हमारे युवाओं को शोषण के खिलाफ आवाज उठाने वाले नायक से भी परिचित कराएगी।
भीमा कोरेगांव: दलित संघर्ष की प्रतीकात्मक जीत
भीमा कोरेगांव की लड़ाई भारतीय इतिहास की उन घटनाओं में से एक है, जिसे दलित समुदाय के संघर्ष की प्रतीकात्मक जीत के तौर पर देखा जाता है। इस लड़ाई में ब्रिटिश सेना में शामिल महार सैनिकों ने पेशवा सेना को हराया था। इस जीत को दलित समुदाय ने अपने स्वाभिमान और अस्तित्व की जीत के तौर पर स्वीकार किया था।
फिल्म बनाना क्यों जरूरी?
हाल के वर्षों में भीमा कोरेगांव की घटना पर सामाजिक और राजनीतिक चर्चा बढ़ी है और इसे दलितों के संघर्ष और उत्पीड़न के खिलाफ संघर्ष के प्रतीक के रूप में देखा जा रहा है। भीमा कोरेगांव पर एक फिल्म न केवल ऐतिहासिक घटनाओं को उजागर करेगी बल्कि भारतीय समाज में जातिगत भेदभाव के खिलाफ जागरूकता बढ़ाने में भी मददगार साबित हो सकती है।
नांगेली: नारी सशक्तिकरण की अनसुनी कहानी
नांगेली का नाम शायद बहुत कम लोगों ने सुना होगा, लेकिन केरल की इस महिला ने जिस तरह अपने अधिकारों और सम्मान के लिए लड़ाई लड़ी, वह महिला सशक्तिकरण का एक अनूठा उदाहरण है। नांगेली ने त्रावणकोर राज्य में महिलाओं पर लगाए जाने वाले ‘स्तन कर’ के खिलाफ विद्रोह किया और अपनी गरिमा की रक्षा के लिए अपने स्तन काटकर राज्य के अधिकारियों को भेंट कर दिए। उनके इस साहसी और आत्म-बलिदान भरे कदम ने पूरे समाज को हिलाकर रख दिया और अंततः उस अन्यायपूर्ण कर को हटाने के लिए मजबूर होना पड़ा।
महिलाओं के अधिकार की कहानी
नांगेली की कहानी आज के समय में बहुत प्रासंगिक है, जहां महिलाओं के अधिकारों और उनके स्वाभिमान की बात की जा रही है। इस पर फिल्म बनाकर भारतीय सिनेमा एक अनसुनी और साहसी कहानी सामने ला सकता है, जो समाज में महिलाओं के संघर्ष और उनके अदम्य साहस को पहचान दिलाएगी।
भारतीय सिनेमा की जिम्मेदारी
भारतीय सिनेमा की ताकत सिर्फ़ मनोरंजन तक सीमित नहीं है। यह समाज के अनकहे और अनसुने पहलुओं को उजागर करने का एक अहम माध्यम है। थंगल्लान जैसी फ़िल्में हमें एहसास कराती हैं कि हमारे देश में ऐसी कई कहानियाँ हैं जिन्हें सिनेमा के ज़रिए बताया जाना चाहिए। बिरसा मुंडा, भीमा कोरेगांव और नांगेली जैसी ऐतिहासिक घटनाओं और व्यक्तित्वों पर फ़िल्म बनाने से न सिर्फ़ हमारे इतिहास को समझने में मदद मिलेगी बल्कि समाज के दबे-कुचले तबकों के संघर्षों को भी पहचान मिलेगी। इन पर फ़िल्म बनाने से भारतीय सिनेमा के विभिन्न पहलुओं का और विस्तार होगा।
इन्हें भी मिलना चाहिए मंच
आज जब भारतीय सिनेमा वैश्विक पटल पर अपनी पहचान बना रहा है, तो समय आ गया है कि हम अपने देश के उन वीरों की कहानियों को भी दुनिया के सामने लाएँ जिन्होंने अपने संघर्ष और बलिदान से इतिहास रच दिया। सिनेमा के इस दौर में जहाँ दर्शक ऐतिहासिक कहानियों को बड़े चाव से देख रहे हैं, वहीं बिरसा मुंडा, भीमा कोरेगांव और नंगेली पर फ़िल्म बनाना न केवल सिनेमा की सामाजिक ज़िम्मेदारी है, बल्कि यह उन अनकही कहानियों को सामने लाने का एक सशक्त माध्यम भी है।
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