फ्यूंला नारायण में भगवान विष्णु के मस्तिष्क पर क्यों लगाया जाता है मक्खन, जानें क्या है पीछे का कारण

Why butter applied Lord Vishnu head Phulala Narayan
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चमोली जिले की उर्गम घाटी में समुद्र तल से करीब दस हजार फीट की ऊंचाई पर स्थित भगवान फ्यूंला नारायण एक बेहद खूबसूरत धाम है। इस प्राचीन मंदिर में पुजारी ठाकुर जाति से हैं और यहां उगने वाले विशेष फूल ‘फ्यूंला’ के कारण इसे फ्यूंला नारायण कहा जाता है। भगवान विष्णु चतुर्भुज रूप में विराजमान हैं। यहां नारायण की मूर्ति के अलावा मां लक्ष्मी और जय विजय नाम के दो द्वारपालों की मूर्तियां भी हैं। हर साल श्रावण संक्रांति यानी 16 जुलाई के आसपास नारायण के कपाट बड़ी धूमधाम से खोले जाते हैं और 30 अगस्त से 25 सितंबर के बीच नंदा अष्टमी की नवमी तिथि पर नारायण के कपाट बंद कर दिए जाते हैं। साथ ही यहां के पुजारी भगवान विष्णु की मूर्ति को भव्य तरीके से सजाते हैं और भगवान के मस्तिष्क पर मक्खन का लेप लगाया जाता है। आइए आपको बताते हैं किस तरह किया जाता है भगवान का श्रृंगार।

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कपाट खुलने के बाद होता है भव्य शृंगार

जब मंदिर के कपाट खुलते हैं तो भगवान नारायण को स्नान कराने के बाद फ्यूंला के फूलों से श्रृंगार किया जाता है। इससे पहले ग्रामीण अपनी गायों को लेकर फ्यूंला नारायण पहुंचते हैं और इन गायों का दूध और मक्खन भगवान को अर्पित किया जाता है। खास बात यह है कि यहां पुजारी की जगह महिलाएं भगवान का श्रृंगार करती हैं। जिसके बाद पुजारी, श्रृंगार करने वाली महिला और गाय कपाट बंद होने तक फ्यूंला नारायण मंदिर में ही रहते हैं। साथ ही यहां भगवान विष्णु के सिर पर मक्खन लगाने की परंपरा है जहां सुबह भगवान को स्नान कराकर तिलक चंदन लगाया जाता है उसके बाद भगवान के मस्तिष्क पर मक्खन लगाने की परंपरा है। यहां विष्णु जी की पूजा के साथ ही नंदा सुनंदा वनदेवी जाख, भूमियाल, मनक्वा बृहस्पति देवता दानी, घंटा करण और बन देवियों की पूजा की जाती है।

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यहां नारायण की धूनी द्वार खुलते ही लगातार जलती रहती है। ऐसा माना जाता है कि अगर धुनी बुझ जाए तो आग बाहर से लानी पड़ती है। जब आग लाने वाले से पूछा जाता है कि वह आग कहाँ से ला रहा है, तो कहा जाता है कि त्रिजुगीनारायण ही वह जगह है जहाँ धूनी अभी भी जल रही है। ऐसी मान्यता है धूनी बुझनी नहीं चाहिए।

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सिर्फ डेढ़ माह खुला रहता है मंदिर

फ्यूंला नारायण मंदिर के पुजारी रघुबीर सिंह बताते हैं कि परंपरा के अनुसार मंदिर के कपाट श्रावण संक्रांति पर खुलते हैं और डेढ़ माह बाद नंदा अष्टमी पर बंद कर दिए जाते हैं।

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