Maha Kumbh Ganga Importance: उत्तर प्रदेश के प्रयागराज में इस वर्ष हो रहे महाकुंभ 2025 ने आध्यात्मिकता, संस्कृति और परंपरा के एक अनोखे संगम का मंच तैयार किया है। पौष पूर्णिमा से शुरू हुए इस आयोजन में देश-विदेश से लाखों श्रद्धालु गंगा, यमुना और सरस्वती के पवित्र संगम में स्नान के लिए उमड़ रहे हैं। यह मेला न केवल धर्म और संस्कृति का उत्सव है, बल्कि यह भारत की अद्वितीय परंपरा को जीवंत करने का माध्यम भी है।
गंगा: महाकुंभ की आत्मा- Maha Kumbh Ganga Importance
महाकुंभ के केंद्र में गंगा नदी का पवित्र जल है, जिसे भारतीय संस्कृति में केवल जल स्रोत नहीं, बल्कि जीवन और आध्यात्म का प्रतीक माना गया है। गंगा को ‘विष्णुपदी’ और ‘देवनदी’ जैसे नामों से पुकारा जाता है। स्कंद पुराण में वर्णित है कि गंगा का जल भगवान विष्णु के चरणों से प्रवाहित हुआ है। इसे हरिचरणामृत भी कहा जाता है।
गंगा का महत्व केवल धर्म तक सीमित नहीं है, बल्कि यह भारतीय समाज की सांस्कृतिक आत्मा है। इसकी पवित्रता और शुद्धता का उल्लेख पौराणिक ग्रंथों में मिलता है। प्रयागराज में संगम का महत्व इसलिए और भी बढ़ जाता है, क्योंकि यह गंगा, यमुना और अदृश्य सरस्वती का मिलन स्थल है।
गंगा का पहला अवतरण: विष्णु पुराण और स्कंद पुराण के अनुसार
गंगा के पृथ्वी पर अवतरण की कथा का वर्णन विष्णु पुराण और स्कंद पुराण में मिलता है। मान्यता है कि क्षीरसागर में शयन कर रहे भगवान विष्णु ने जब करवट बदली, तो उनके चरणों से जल की बूंदें टपकीं। इन्हीं बूंदों से देवी गंगा का पहला अवतरण हुआ। यह दर्शाता है कि गंगा केवल जलधारा नहीं, बल्कि विष्णु के चरणों का अमृत हैं।
विष्णु के वामन अवतार और गंगा की उत्पत्ति
एक और कथा भगवान विष्णु के वामन अवतार से जुड़ी है। जब विष्णु ने राजा बलि से तीन पग भूमि मांगी, तो उन्होंने अपने पहले पग में धरती और दूसरे में ब्रह्मांड को माप लिया। इस प्रक्रिया में उनका पैर द्रोण पर्वत से टकराया, जिससे रक्त की बूंदें गिरीं। ब्रह्मा ने इस रक्त को कमंडल में भर लिया, और यही पवित्र जल गंगा कहलाया।
विष्णुपदी के रूप में गंगा
जब वामन अवतार में भगवान विष्णु का पैर ब्रह्मलोक पहुंचा, तो ब्रह्मा ने उनके चरण धोए। इस चरणामृत को हिमालय ने अपनी अंजुली में ग्रहण किया और इसे पुत्री के रूप में प्राप्त किया। भगवान विष्णु के चरण कमल में निवास करने के कारण गंगा को ‘विष्णुपदी’ कहा गया।
गंगा का देवनदी बनना
पर्वतराज हिमालय की पुत्री गंगा को ब्रह्मदेव ने पवित्रता और शुचिता का वरदान दिया। एक पौराणिक कथा के अनुसार, गंगा शिव से प्रेम करती थीं, लेकिन शिव का विवाह पार्वती से होने के कारण वह उदास हो गईं और स्वयं को तरल कर लिया। इस बीच, जब गौतम ऋषि की पत्नी अहिल्या के साथ दुराचार हुआ, तो देवलोक की पवित्रता नष्ट हो गई। ब्रह्मदेव ने गंगा से स्वर्ग लौटने का आग्रह किया, जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया। इस प्रकार गंगा ‘देवनदी’ कहलाईं।
जटाशंकरी का नामकरण
गंगा के धरती पर अवतरण का सबसे प्रसिद्ध वर्णन राजा भगीरथ की कथा में मिलता है। अपने पूर्वजों के मोक्ष के लिए भगीरथ ने गंगा को स्वर्ग से धरती पर लाने का प्रयास किया। गंगा का वेग इतना अधिक था कि वह धरती को विचलित कर सकती थीं। इसके समाधान के लिए भगीरथ ने भगवान शिव की तपस्या की।
महादेव ने गंगा के वेग को संभालने के लिए उन्हें अपनी जटाओं में धारण कर लिया। गंगा शिव की जटाओं में उलझ गईं, और इसी कारण वह ‘जटाशंकरी’ कहलाईं।
गंगा: पवित्रता और शुद्धता का प्रतीक
गंगा के विभिन्न नाम और उनसे जुड़ी पौराणिक कथाएं यह सिद्ध करती हैं कि वह केवल एक नदी नहीं, बल्कि त्रिदेवों के आशीर्वाद और सान्निध्य का प्रतीक हैं। गंगा का जल केवल प्यास बुझाने का माध्यम नहीं, बल्कि आध्यात्मिक शुद्धता का प्रतीक है।