1989 के चुनाव के बाद संयुक्त मोर्चा की संसदीय दल की बैठक चल रही थी। इस बैठक में देवीलाल को संसदीय दल का नेता मान लिया गया। वे प्रधानमंत्री की कुर्सी के बेहद करीब थे। बैठक में विश्वनाथ प्रताप सिंह ने देवीलाल को संसदीय दल का नेता बनाने का प्रस्ताव रखा था, जिसका चन्द्रशेखर ने भी समर्थन किया था। देवीलाल अपनी राजनीति के शिखर पर थे। हालांकि, राजीव सरकार के खिलाफ जनता दल को जीत दिलाने में वीपी सिंह की बड़ी भूमिका थी। वे स्वयं प्रधानमंत्री पद के दावेदार थे, लेकिन उन्होंने चौधरी देवीलाल का नाम प्रस्तावित किया। इस तरह चौधरी देवीलाल का प्रधानमंत्री बनने का रास्ता पूरी तरह साफ हो गया। लेकिन अभी भी एक ट्विस्ट बाकी था। दरअसल, प्रस्ताव सुनने के बाद देवीलाल बैठक के बीच में ही खड़े हो गए। बहुत ही सरल ढंग से कहा, ‘मैं यह पद विश्वनाथ प्रताप को सौंपता हूं।’ उनके इस स्टेटमेंट से पूरे सेंट्रल हॉल में सन्नाटा छा गया। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि देवीलाल अपनी बात के पक्के नेता थे। 1989 में उन्होंने जो किया वह किसी भी नेता के लिए करना लगभग असंभव है। लेकिन क्या कारण था कि देवीलाल ने प्रधानमंत्री बनने का मौका छोड़ दिया, आइए जानते हैं।
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देवीलाल राजनीतिक करियर
25 सितंबर 1914 को जन्मे चौधरी देवीलाल एक समृद्ध किसान परिवार से थे। उनका जन्म हरियाणा के सिरसा जिले के तेजा खेड़ा गांव में हुआ था। देवीलाल 1952 में पहली बार पंजाब से विधायक बने। 1956 में वे पंजाब कांग्रेस के अध्यक्ष बने। देवीलाल ने हरियाणा को अलग राज्य बनाने में अहम भूमिका निभाई। 1958 में वे सिरसा से चुने गये। 1971 में उन्होंने कांग्रेस छोड़ दी। आपातकाल के बाद हुए चुनाव में उन्होंने जनता पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ा। वह हरियाणा के सीएम बने। 80 के दशक में चौधरी देवीलाल ने लोकदल नाम से एक अलग पार्टी बनाई। इस तरह चौधरी देवीलाल ने राजनीति में कई मुकाम हासिल किये। उनकी लोकप्रियता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 1987 के चुनाव में देवीलाल की पार्टी ने हरियाणा की 90 में से 85 सीटें जीतीं और देवीलाल दूसरी बार हरियाणा के सीएम बने।
इस वजह से ठुकराया प्रधानमंत्री का पद
अब बात करते हैं 1989 के चुनाव की जहां उन्होंने वीपी सिंह को प्रधानमंत्री का पद सौंपा। 1989 के चुनाव के बाद संयुक्त मोर्चा की संसदीय दल की बैठक में विश्वनाथ प्रताप सिंह ने देवीलाल को संसदीय दल का नेता बनाने का प्रस्ताव रखा था, जिसका चन्द्रशेखर ने भी समर्थन किया था। बैठक में देवीलाल नेताओं को धन्यवाद देने के लिए खड़े हुए और बोले- ‘मैं सबसे बुजुर्ग हूं, मुझे सब ताऊ बुलाते हैं। मुझे ताऊ बने रहना ही पसंद है और मैं ये पद विश्वनाथ प्रताप सिंह को सौंपता हूं।’ उनकी ये बात सुनकर सभी हैरान थे कि देवीलाल ने ऐसा क्यों किया। उन्होंने प्रधानमंत्री का पद एक झटके में क्यों ठुकरा दिया?
उस समय चन्द्रशेखर वीपी सिंह को संसदीय दल का नेता चुने जाने के ख़िलाफ़ थे। उन्होंने संसदीय दल का नेता बनने के लिए चुनाव लड़ने की घोषणा की थी। वीपी सिंह को अपनी जीत का भरोसा नहीं था। लेकिन दोनों देवीलाल के नाम पर सहमत हो गये। दोनों नेताओं ने देवीलाल को तब अपना समर्थन दिया था जब उन्हें संसदीय दल का नेता चुना गया था।
हालांकि, राजनीतिक जानकारों का कहना है कि संसदीय दल की बैठक से पहले ही देवीलाल और वीपी सिंह के बीच गुप्त समझौता हो गया था। देवीलाल ने वीपी सिंह को दिया वादा निभाया और संसदीय दल के नेता की कुर्सी वीपी सिंह को सौंप दी। इस तरह से देवीलाल राजनीति के किंगमेकर बन गये। चौधरी देवीलाल के कारण ही वीपी सिंह प्रधानमंत्री बन सके।
फिर मिला प्रधानमंत्री बनने का मौका
चौधरी देवीलाल को प्रधानमंत्री बनने का एक और मौका मिला। हुआ यह कि जब वीपी सिंह प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने देवीलाल को अपने मंत्रिमंडल से हटा दिया, लेकिन बाद में देवीलाल उपप्रधानमंत्री बन गये, वो भी चन्द्रशेखर के साथ। राजनीति में हालात बदले और 4 महीने के अंदर ही चन्द्रशेखर को इस्तीफा देना पड़ा। यही मौका था जब देवीलाल प्रधानमंत्री पद के लिए अपने विचार व्यक्त कर सकते थे, लेकिन फिर भी उन्होंने ऐसा नहीं किया। राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि जब देवीलाल ने चन्द्रशेखर को इस्तीफा देने से मना किया तो चन्द्रशेखर का जवाब था कि मैं इस्तीफा दे रहा हूं, आप चाहें तो खुद राजीव गांधी से बात कर सकते हैं। लेकिन देवीलाल ने ऐसा नहीं किया। इस तरह से वीपी सिंह और चन्द्रशेखर दोनों की सरकार में देवीलाल उपप्रधानमंत्री बने।