भारत में राजनीति का पूरा का पूरा ढांचा बदल देने वाले कांशीराम सत्तर के दशक में उभरकर लोगों के सामने आए। जिनके योगदान से समर्थकों और विरोधियों तक ने कांशीराम के महत्व को मान लिया। कांशीराम तो राजनीति को बदलने में कामयाब रहे, लेकिन बाबसाहेब भीमराव अंबेडकर ने जितने कदम उठाया एक पिछले दबे-कुचले समाज के लिए उसे भी भुलाया नहीं जा सकता है। तो आज हम अम्बेडकरवाद बनाम कांशीरामवाद के बारे में चर्चा करेंगे।
कांशीराम और उनके संघर्षों को लेकर जब भी बातचीत की जाती है तो कांशीराम पर आरोप लगते हैं कि अम्बेडकरवाद से विमुख राजनेता थे, जिसके पीछे का तर्क ये दिया जाता है कि वो सत्ता हासिल करने के लिए जो भी साधन होते हैं उन पवित्रता विश्वास नहीं रखते थे पर दूसरी तरफ डॉक्टर अम्बेडकर नैतिक मूल्यों को साथ लेकर चलने वाले नेता के तौर पर पहचाने गए। इन्हीं आरोपों के कारण कांशीराम की जो पार्टी है बीएसपी उसे पोस्ट-अंबेडकराइट कहा जाता है मतलब ये कि अम्बेडकरवाद से बाद की पार्टी।
इस तरह से कांशीराम के विचारधारा को कुछ लोगों ने नाम दिया कांशीरामवाद। कांशीराम के संपादकीय लेखों को अगर आप पढ़ेंगे तो जान पाएंगे कि शुरुआती दिनों से ही अम्बेडकरवाद से विमुख होने यानी कि दूर होने के उन पर आरोप लगते रहे थे। RPI और दलित पैन्थर के लोग कांशीराम पर ज्यादातर आरोप लगाते थे। अपने लेखों में वो समय-समय पर ऐसे आरोप की सफाई भी देते रहते थे। वो मानते थे कि जिनकी वजह से अम्बेडकरवादी आंदोलन में कमजोरी आई। वो लोग ये चाहते नहीं थे कि अम्बेडकरवाद पुनर्जीवित हो और ऐसा हुआ तो जनता के बीच उन्हें अपनी नाकामयाबी का हिसाब देना होगा।
इस तरह से अगर अंबेडकरवाद को कांशीराम के नजरिए से देखें तो किसी भी संगठन या संस्थान को तभी अंबेडकरवादी कह सकते हैं जब इस बात की जानकारी हो कि उसका लक्ष्य क्या है, संस्था किसके लिए काम कर रही है, उसे चला कौन रहा है, संस्था या संगठन किसके पैसे से चल रहा है? ऐसा इस वजह से भी जरूरी है क्योंकि अंबेडकरवादी विचारधारा जातिगत गुलामी के अगेंट्स एक आंदोलन है। कांशीराम के मुताबिक अम्बेडकरवादी आंदोलन को डिपेंडेंट बनाने लिए अपने संसाधन (रुपया, मानव संसाधन और समाचार चैनल, संस्थान, संगठन को एकजुट करना चाहिए।