शेर-ए-पंजाब महाराजा रणजीत सिंह जिन्होंने दस साल की उम्र में पहला युद्ध लड़ा और 12 साल की उम्र में गद्दी संभाल ली साथ ही 20 साल की उम्र में लाहौर को जीत लिया था. महाराजा रणजीत सिंह ने कई जंग लड़ी और सिख साम्राज्य का विस्तार हुआ तो वहीं कहा जाता है कि वो महाराजा रणजीत सिंह ही थे जिन्होंने अहमद शाह अब्दाली के वंशजो से बदला लिया था और इस जंग में मिली जीत के पंजाब में दो महीने तक दिवाली मनाई गयी थी.
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1780 में हुआ था महाराजा रणजीत सिंह का जन्म
महाराजा रणजीत सिंह का जन्म 13 नवंबर 1780 को हुआ था और जब वो 12 साल के थे तब चेचक की वजह से उनकी आंख की रोशनी चली गयी थी. वहीं इस बीच उनके पिता का निधन हो गया और 12 साल की उम्र में उन्होंने गद्दी संभाल ली. ये वो समय था जब पंजाब टुकड़े-टुकड़े में बंटा था जिन्हें मिस्ल कहा जाता था और यहाँ पर सिख सरदारों की हुकूमत चलती थी. वहीं 20 साल की उम्र में महाराजा रणजीत सिंह ने मिस्लों के सरदारों को हराकर अपने सैन्य अभियान की शुरुआत की और 7 जुलाई, 1799 को उन्होंने चेत सिंह की सेना को हराकर लाहौर पर कब्जा कर लिया और यहाँ से एक विशाल सिख साम्राज्य की स्थापना की. वहीँ इसके बाद 12 अप्रैल, 1801 को रणजीत सिंह की पंजाब के महाराजा बने.
इसके बाद 1802 में उन्होंने अमृतसर को भी अपने साम्राज्य में मिला लिया और 1807 में उन्होंने अफगानी शासक कुतुबुद्दीन को हराकर कसूर पर कब्जा किया. वहीँ जहाँ महाराजा रणजीत सिंह तेजी से अपने राज्य की सीमाएं बढ़ा रहे थे तो वहीं 1811 में उन्होंने राजौरी पर हमला कर उसे अपने अधीन कर लिया और इस बीच अहमद शाह अब्दाली के वंशजों से भी बदला लिया.
1747 में शुरू हुआ इस जंग का किस्सा
ये जंग का किस्सा शुरू होता है जब 1747 अहमद शाह अब्दाली अफ़ग़ानिस्तान के राजा बने और खुद को शाह, दुर्र-ए-दुर्रानी के टाइटल से नावाजा. जिसका मतलब है मोतियों में सबसे अनमोल मोती. यहीं से दुर्रानी वंश के शासन की शुरुआत हुई. वहीँ राजा बनने के बाद अहमद शाह ने अपने राज्य का विस्तार करना शुरू किया और वो उत्तर भारत को अपने कब्जे में लेना चाहते थे और ऐसा करने के लिए दुर्रानी सल्तनत और सिख सरदारों के बीच कई सारी जंग हुई और इस जंग का सिलसिला अहमद शाह के कई वंश तक चलता रहा.
इस कड़ी में महाराजा रणजीत सिंह ने जब 1811 में राजौरी पर हमला कर उसे अपने अधीन कर लिया. तब इस बीच 1812 में महराजा रणजीत सिंह और फ़तेह खान के बीच एक संधि हुई. इस संधि में कहा गया कि जब दुर्रानी फौज कश्मीर पर हमला करेगी तब सिख चुप रहेंगे और इस हमले में एक छोटी सी सिख टुकड़ी भी शामिल होगी और बदले में लूट का जितना माल होगा, उसका एक तिहाई हिस्सा सिखों को मिलेगा. कश्मीर के वज़ीर अता मुहम्मद खान ने जंग से पहले ही हथियार डाल दिए थे और फ़तेह खान ने समझौते की शर्तों से इनकार कर दिया. वहीं जैसे ही लाहौर में महाराजा रणजीत सिंह को जब पता चला की दुर्रानी अपने वादे से पलट गए हैं तो उन्होंने अटक का किला जिस पर दुर्रानियों का कब्जा था उसे अपने कब्जे में ले लिया और एक नयी जंग शुरू हुई.
अटक की जंग
इस जंग में फतेह खान और उनका भाई दोस्त मुहम्मद भी शमिल थे और इस जंग में सिख हराने लगे. तभी इस जंग का हिस्सा रहे दीवान मोखम चंद अपनी घुड़सवार टुकड़ी के साथ उन्होंने अफ़ग़ान कैम्प पर धावा बोल दिया. इस बीच अफ़ग़ान कैम्प में अफवाह फ़ैल गई कि दोस्त मुहमद खान की मौत हो गई है. वहीँ भाई की मौत के बारे में सुनते ही फ़तेह खान के हौंसले टूट गए और वो जंग से पीछे हट गए और इसी के साथ अटक की जंग में सिख फौज के जीत हो गई.
वहीं सिखों के लिए दुर्रानी सल्तनत के ऊपर मिली ये अब तक की सबसे बड़ी जीत थी और कहा जाता है कि इस जंग में मिली जीत के खबर जब रणजीत सिंह को मिली तब उन्होंने पूरे राज्य को रौशन करने का आदेश दिया.
दो महीने तक मनाई गयी दिवाली
अमृतसर, लाहौर सहित सिख साम्राज्य के सभी बड़े शहरों को अगले दो महीने तक रौशन रखा गया. इसके बाद साल 1814 में महाराजा रणजीत सिंह ने एक बार फिर कश्मीर को सिख साम्राज्य में मिलाने की कोशिश की लेकिन वो इसमें सफल नहीं हो पाए.इसी के साथ 1818 में उन्होंने मुल्तान को अपने कब्ज़े में कर पंजाब से अफ़ग़ान सल्तनत का सफाया कर दिया और जुलाई 1818 में कश्मीर को भी अपने राज्य में मिला लिया. 1819 में पेशावर पर भी सिख साम्राज्य का कब्ज़ा हो गया.
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