Rahul Sankrityayan achievement – राहुल सांकृत्यायन को हिंदी यात्रा साहित्य का जनक माना जाता है, उन्होंने बहुत सारी भाषओं का ज्ञान था और 20वीं सदी की शुरुवात में इन्होने यात्रा और विश्व दर्शन पर साहित्य में योगदान देना शुरू कर दिया था. उन्होंने बौद्ध धर्म पर भी शोध किया है, जिसके लिए उन्होंने तिब्बत से श्रीलंका तक यात्रा की थी. राहुल सांस्कृत्यायन को हम घुमक्कड़ श्रेणी के व्यक्तियों में ऊपर से गिन सकते है. उनकी देश दुनिया देखने की इच्छा, उनके अन्दर के सवालों ने उन्हें पूरे जीवन में कभी रुकने नहीं दिया. इनके अन्दर कुछ सवाल थे बौद्ध धर्म को लेकर, जिसकी ख़ोज में यह श्रीलंका, तिब्बत और नेपाल सालों भटकते रहे.
दोस्तों आज हम आपको बताएंगे एक ऐसे भारतीय घुमक्कड़ व्यक्ति के बारे में जिन्होंने अपने पूरे जीवन में कभी रुकने का नहीं सोचा. जीवन भर वह यात्राओं में ही रहे. जिन्हें यात्राओं में रहा कर हिंदी यात्रा साहित्य की शुरुवात की. और साथ ही यह देश विदेश में बौद्ध साहित्य को समृद्ध करने वाला इकलौता शख़्स भी थे.
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कौन थे राहुल सांस्कृत्यायन
राहुल सांस्कृत्यायन का जन्म 9 अप्रैल, 1893 को, आजमगढ़, उत्तर प्रदेश में हुआ था, उनके पिता था नाम गोवर्धन पांडे था उनकी माता का नाम कुलवंती था. 1930 में लंका में बौद्ध होने पर उनका नाम ‘राहुल’ रख दिया था. पहले उनका नाम दामोदर स्वामी था. उसने राहुल नाम के आगे ‘सांस्कृत्यायन’ इसलिए लगाया क्यों कि उनके पितृकुल सांकृत्य गोत्रीय है.
राहुल का बचपन उनके ननिहाल में बीता. उनके नाना का नाम पंडित राम शरण थे जो एक फौजी थे, नाना से सुनी फौजी जीवन की कहानियां, शिकार, देश में कई प्रदेशों का रोचक वर्णन, गुफ़ाए, नदियाँ , झरनों का वर्णन ने राहुल के आने वाले जीवन की भूमिका तैयार कर दी थी. इसके साथ जो कमी बची थी वो सब नवाजिन्दा-बाजिन्दा जी के एक शेर ने पूरी करदी :
सैर कर दुनिया की गाफिल ज़िन्दगानी फिर कहाँ,
ज़िन्दगी गर कुछ रही तो नौजवानी फिर कहाँ.
देश दुनिया देखने के लिए उसे हर चीज़ प्रेरित करने लगी, एक दिन उसे घी की मटकी फूट गयी और नाना की डांट के डर से घर से भाग निकला. अब उसके नाना के मूह से निकले सरे वर्णन, बौद्ध धर्म को जाने का उत्साह और नवाजिन्दा-बाजिन्दा जी का वह शेर ही उसे रहा. यहा से शुरू हुई उसके जीवन कि यात्रा.
राहुल सांस्कृत्यायन के जीवन की यात्राएं
राहुल सांस्कृत्यायन (Rahul Sankrityayan achievement) घर से भाग कर वाराणसी और कलकता गए, जहाँ से उनके घुमक्कड़पन की यात्रा शुरी हुई थी. कलकता से आने के बाद वह हिमालय की यात्रा पर चले गए. कुछ समय वह वैराग्य जीवन से प्रभावित रहे, हिमालय पर वैराग्य जीवन जीया. वाराणसी में संस्कृत का ज्ञान प्राप्त किया, आगरा में पढाई की, लाहौर में मिशनरी कार्य किया इसके बाद तो उनपर घुमक्कड़ी का भूत’ सवार ही रहा. राहुल जी कुर्ग में चार महीने रुके. अपनी यात्राओं के दौरान इन्होने बौद्ध धर्म पर शोध किया और विभिन्न किताबें लिखी.
उसके बाद राहुल सांकृत्यायन ने छपरा चले गए. बाढ़ पीड़ितों की सेवा की, स्वतन्त्रता आन्दोलन में भाग लिया और जेल की सजा भी मिली. जिसके बाद वह कांग्रेस के मंत्री भी बने. उन्होंने कौंसिल का चुनाव भी लड़ा.
लेकिन एक घुमक्कड़ आदमी कब तक बिना यात्रा के रह सकता है वह यह सब छोड़ कर फिर अपनी यात्रा पर निकल दिए. जिसके बाद 19 महिना श्रीलंका में रहे. उन्होंने नेपाल, तिब्बत, श्री लंका में आज्ञातवास किया. बीच में एक बार सत्याग्रह के लिए भारत आकर फिर श्री लंका की तरफ निकल लिए.
राहुल सांकृत्यायन की यात्राएं – Rahul Sankrityayan achievement
- इंग्लैण्ड और यूरोप की यात्रा की
- दो बार लद्दाख यात्रा,
- दो बार तिब्बत यात्रा,
- जापान,
- कोरिया,
- मंचूरिया,
- सोवियत भूमि (1935 ई.),
- ईरान में एक बार,
- 1936 में तिब्बत,
- 1937 में सोवियत.
राहुल सांकृत्यायन ने अपने जीवन में जितनी यात्राएं की उतनी ही यात्राओ के बारे में रचनाये भी की है जो इस प्रकार है.
कहानियां – Rahul Sankrityayan Books
- सतमी के बच्चे
- वोल्गा से गंगा
- बहुरंगी मधुपुरी
- कनैला की कथा
उपन्यास
- बाईसवीं सदी
- जीने के लिए
- सिंह सेनापति
- जय यौधेय
- भागो नहीं, दुनिया को बदलो
- मधुर स्वप्न
- राजस्थान निवास
- विस्मृत यात्री
- दिवोदास
जीवनी
- सरदार पृथ्वीसिंह
- नए भारत के नए नेता
- बचपन की स्मृतियाँ
- अतीत से वर्तमान
- स्तालिन
- लेनिन
- कार्ल मार्क्स
- माओ-त्से-तुंग
- घुमक्कड़ स्वामी
- मेरे असहयोग के साथी
- जिनका मैं कृतज्ञ
- वीर चन्द्रसिंह गढ़वाली
- सिंहल घुमक्कड़ जयवर्धन
यात्रा साहित्य
- लंका
- जापान
- इरान
- किन्नर देश की ओर
- चीन में क्या देखा
- मेरी लद्दाख यात्रा
- मेरी तिब्बत यात्रा
- तिब्बत में सवा बर्ष
- रूस में पच्चीस मास
साहित्यिक पुरस्कार भी मिले
- 1958 में ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’
- 1963 में ‘पद्म भूषण’ से सम्मानित किया गया.
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