History of work hours: भारत की प्रतिष्ठित कंस्ट्रक्शन कंपनी लार्सन एंड टुब्रो (L&T) के चेयरमैन एस.एन. सुब्रमण्यन ने हाल ही में अपने कर्मचारियों को हफ्ते में 90 घंटे काम करने की सलाह दी। इस बयान ने सोशल मीडिया से लेकर बिज़नेस वर्ल्ड तक एक नई बहस को जन्म दिया कि क्या अधिक घंटे काम करना सही है या स्मार्ट वर्क बेहतर विकल्प है।
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एस.एन. सुब्रमण्यन के बयान के बाद सोशल मीडिया पर मीम्स की बाढ़ आ गई। साथ ही, महिंद्रा ग्रुप के चेयरमैन आनंद महिंद्रा और आईटीसी के चेयरमैन संजीव पुरी जैसे दिग्गजों ने इस पर अपनी राय दी। आनंद महिंद्रा ने कहा कि वे ‘क्वालिटी ऑफ वर्क’ को प्राथमिकता देते हैं, न कि ‘क्वांटिटी ऑफ वर्क’ को। वहीं, संजीव पुरी ने फ्लेक्सिबल वर्क कल्चर की वकालत करते हुए कहा कि कर्मचारियों के लिए प्रेरणा का माहौल बनाना ज़रूरी है, न कि काम के घंटे तय करना।
I’ve probably worked 100 hours a week for nearly all my working life, but most of that was as an entrepreneur. You don’t have to enforce working hours. People who are motivated will work happily. In any case most real work happens in 4-5 hours a day, but you don’t know when that…
— Deepak Shenoy (@deepakshenoy) January 10, 2025
काम के घंटे और मानव इतिहास- History of work hours
आधुनिक समय में काम के घंटे और जीवनशैली पर कई रिसर्च हुई हैं। 19वीं शताब्दी में औद्योगिकीकरण के बाद वर्किंग आवर्स हफ्ते में 150 घंटे तक पहुंच गए थे। जैसे-जैसे आर्थिक संपन्नता और मानवाधिकारों के प्रति जागरूकता बढ़ी, वर्किंग आवर्स में कमी आई।
1870 में अमेरिका में जहां सालाना 3000 घंटे काम होता था, वह आज घटकर औसतन 1700 घंटे रह गया है। जर्मनी और ब्रिटेन जैसे देशों में यह गिरावट और भी अधिक देखी गई है।
विकासशील और विकसित देशों के बीच अंतर
आज भी विकसित और विकासशील देशों के वर्क कल्चर में बड़ा अंतर है। अमेरिका, जर्मनी, और फ्रांस जैसे देशों में हफ्ते में 4 दिन और रोजाना 6 घंटे काम करने का ट्रेंड बढ़ रहा है। वहीं, भारत और चीन जैसे विकासशील देशों में काम के घंटे अभी भी अधिक हैं, खासकर इनफॉर्मल सेक्टर में।
भारतीय और चीनी समाज में औसतन काम के घंटे ज्यादा हैं। यहां की बड़ी आबादी के कारण इनफॉर्मल सेक्टर का दायरा विशाल है, जहां काम के घंटे तय नहीं होते और मेहनत अधिक करनी पड़ती है।
टाइम स्पेंड और लाइफस्टाइल
मनुष्य अपने जीवन के 24 घंटे को तीन मुख्य हिस्सों में बांटता है—काम, आराम और मनोरंजन। लेकिन इन हिस्सों में खर्च होने वाला समय हर देश और व्यक्ति के लिए अलग-अलग है।
सोने का समय
दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में सोने की आदतें अलग हैं। साउथ कोरिया में औसतन लोग 7 घंटे 51 मिनट सोते हैं, जबकि भारत और अमेरिका में यह आंकड़ा 7-8 घंटे का है।
खाने का समय
फ्रांस, ग्रीस और इटली जैसे देशों में लोग खाने पर ज्यादा समय बिताते हैं। इसके उलट अमेरिका में औसतन केवल 63 मिनट खाना खाने में खर्च होते हैं।
फुर्सत का समय
विकसित देशों में लोग फुर्सत के पल खेल, सांस्कृतिक कार्यक्रमों और मनोरंजन में बिताते हैं। वहीं, विकासशील देशों में अतिरिक्त काम और पेड जॉब पर ज्यादा समय दिया जाता है।
काम के घंटे और जेंडर गैप
काम और फुर्सत के समय में जेंडर गैप का भी बड़ा असर है। नॉर्वे जैसे देशों में पुरुषों और महिलाओं के फुर्सत के समय में अंतर बहुत कम है। लेकिन भारत जैसे विकासशील देशों में यह अंतर अधिक है। भारत में पुरुष औसतन 280 मिनट फुर्सत के पल बिताते हैं, जबकि महिलाओं के लिए यह समय केवल 240 मिनट है।
काम के घंटे पर बहस क्यों ज़रूरी है?
आज के दौर में यह बहस ज़रूरी है कि क्या अधिक घंटे काम करना सही है, या काम को स्मार्ट तरीके से करना बेहतर है। आंकड़ों से साफ है कि विकसित देशों में वर्किंग आवर्स घटने के बावजूद प्रोडक्टिविटी और जीवन की गुणवत्ता में सुधार हुआ है। दूसरी ओर, विकासशील देशों में अभी भी ज़्यादा घंटे काम करना आम बात है।
काम के घंटे और जीवनशैली पर चल रही यह बहस केवल भारतीय समाज तक सीमित नहीं है, बल्कि यह एक वैश्विक मुद्दा है। जहां विकसित देश वर्क-लाइफ बैलेंस की ओर बढ़ रहे हैं, वहीं विकासशील देशों में काम के घंटे और जीवनशैली को लेकर सुधार की ज़रूरत है।
लार्सन एंड टुब्रो के चेयरमैन एस.एन. सुब्रमण्यन का बयान और सोशल मीडिया पर हो रही प्रतिक्रिया इस बात की ओर इशारा करती है कि अब समय आ गया है जब काम के घंटे, जीवनशैली और मानसिक स्वास्थ्य पर गंभीरता से विचार किया जाए।
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