बाबा साहेब ने सालों पहले दलितों के प्रति छूआछूत और भेदभाव को लेकर तमाम सुधार किए थे। लेकिन सैंकड़ों सालों में हुए सुधारों के बावजूद दलितों के प्रति आज भी भेदभाव देखने को मिलता है। भारतीय समाज में आज भी लोगों की मानसिकता कहीं न कहीं वहीं अटकी हुई है। हालांकि आज हम आपको बताने जा रहे है कि डॉक्टर भीम राव आंबेडकर ने कैसे सवर्णों के पानी पीने वाले कुंए से ही निचले तबके के लोगों को पानी पिलाया। कैसे बाबा साहेब ने निचली जाति के लोगों के प्रति सामाजिक प्रतिरोध और छूआछूत का व्यवहार देख गरीबों को उनका अधिकार दिलाया।
दरअसल, बाबा साहेब भीम राव आंबेडकर ने आत्मकथा में बयां करते हुए बताया है कि बाबा साहेब खुद भी निम्न जाति से ताल्लुक रखते थे। इसी वजह से उन्हें अछूत माना जाता था। ऐसे में उन्हें स्कूल में पानी पीने नहीं दिया जाता था। वे जितनी देर तक स्कूल में रहते, प्यासे ही रहते थे।
बाबा साहेब ने सालों पहले दलितों के प्रति छूआछूत और भेदभाव को लेकर तमाम सुधार किए थे। लेकिन सैंकड़ों सालों में हुए सुधारों के बावजूद दलितों के प्रति आज भी भेदभाव देखने को मिलता है। भारतीय समाज में आज भी लोगों की मानसिकता कहीं न कहीं वहीं अटकी हुई है। हालांकि आज हम आपको बताने जा रहे है कि डॉक्टर भीम राव आंबेडकर ने कैसे सवर्णों के पानी पीने वाले कुंए से ही निचले तबके के लोगों को पानी पिलाया। कैसे बाबा साहेब ने निचली जाति के लोगों के प्रति सामाजिक प्रतिरोध और छूआछूत का व्यवहार देख गरीबों को उनका अधिकार दिलाया।
अस्पृश्य लोगों को नहीं थी क्लास में जाने की अनुमति
जाहिर है कि भीम राव आंबेडकर पढ़ने-लिखने में माहिर थे, लेकिन सिर्फ निम्न जाति के होने के चलते उन्हें और उनके जैसे निम्न जाति के और बच्चों को क्लास के बाहर अलग बिठाया जाता था। ऐसे में उनको क्लास के अंदर आने की अनुमति तक नहीं दी जाती थी। निचले तबके से होने की वजह से ज्यादातर टीचर इन अस्पृश्य बच्चों की पढ़ाई-लिखाई पर न ही ध्यान देते थे और न ही उनकी किसी तरह की कोई मदद किया करते थे।
चपरासी यूं पिलाते थे पानी
उस दौरान छूआछूत की हदें इतनी ज्यादा होती थी कि उन बच्चों के प्यास लगने पर स्कूल का कोई चपरासी या कोई ऊंची जाति का शख्स ऊंचाई से उनके हाथ पर पानी गिराता था, तब जाकर वे पानी पीकर अपनी प्यास बुझाते थे। क्योंकि न तो उन्हें पानी का बर्तन और न ही पानी छूने की इजाजत थीं। सवर्णों का मानना था कि अछूतों के छूने से पानी समेत बर्तन अपवित्र हो जाएंगे। प्यास बुझाने के लिए अगर चपरासी मिला तो ठीक है वरना उसके न होने पर हजारों बार बच्चों को वो दिन प्यासे ही गुजारना पड़ता था।
नहीं थी पानी का बर्तन छूने की इजाजत
ऐसे में जब बाबा साहेब 1920 के दशक में बैरिस्टर बनकर स्वदेश लौटे, तब उन्होंने सार्वजनिक स्थानों में पानी पीने का मूलभूत अधिकार बताते हुए 1923 में बम्बई विधान परिषद में एक प्रस्ताव पास किया। ये प्रस्ताव था कि सरकार द्वारा बनाए गए और पोषित तालाबों से अछूतों को भी पानी पीने की इजाजत है। ये प्रस्ताव पास होने के बावजूद हिंदू सवर्णों ने पानी पीने की इजाजत नहीं दी।
बाबा साहेब ने बुलाया सम्मलेन
ऐसे में बाबा साहेब ने दो महीने पहले निचले तबके के लोगों का एक सम्मेलन बुलाया। यहां बाबा साहेब ने कहा कि 20 मार्च, 1927 को हम इस तालाब से पानी पिएंगे। इस दौरान बाबा साहेब आंबेडकर ने अछूतों की भीड़ को साफ-सुथरा रहने का निवेदन किया। और कहा कि हम भी इंसान हैं और दूसरे इंसानों की तरह हमें भी सम्मान के साथ रहने का अधिकार है।
बाबा साहेब ने ऐसे दिलाया सवर्णों की तरह हक
आपको बताते चले कि बाबा साहेब के वक्त महाराष्ट्र के कोंकण क्षेत्र में महाड़ कस्बे के चावदार तालाब में सिर्फ सवर्णों को ही नहाने और पानी पीने का अधिकार था। ऐसे में अपने तबके के लोगों को हक दिलाते हुए आंबेडकर ने कहा… कि इस तालाब का पानी पीकर हम अमर नहीं हो जाएंगे, लेकिन पानी पीकर हम दिखाएंगे कि हमें भी इस पानी को पीने का अधिकार है। बाबा साहेब ने आगे कहा था कि जब कोई बाहरी इंसान और जानवर तक भी इस तालाब का पी सकता है, तो हम पर रोक क्यों लगाई गई? इस सम्मेलन के बाद बाबा साहेब आंबेडकर ने अपने हज़ारों अनुयायियों के साथ चावदार तालाब जाकर वहां पानी पिया।
बाबा साहेब ने खत्म किया छूआछूत
तो उस दौर में बाबा साहेब ने इस तरह से निचले तबके और निम्न जाति के लोगों को पानी पीने का हक दिलाया था। बाबा साहेब के आह्वाहन पर सभी निचले तबके के लोग एकजुट हुए और सवर्णों की छूआछूत और अपवित्र करने वाली विचारधारा को खत्म किया।