दयानंद सरस्वती को हम दार्शनिक, हिन्दू धर्म के समाज सुधारक और आर्य समाज के संस्थापक के तौर पर जानते है. इन्हों धार्मिक पाखंडो, सामाजिक कुप्रथाओ और जातिवाद का जमकर विरोध किया था. वह स्वयं ब्राह्मण होते हुए भी ब्राह्मणवाद का विरोध करते थे. जिसके चलते उनके विरोध ‘सनातन धर्म’ को अस्तित्व में लाया था. लेकिन दयानंद सरस्वती ने अपने अनुयायियों के लिए “सत्यप्रकाश” पुस्तक लिखी थी. जिसमे वेदों के दर्शन और मानव के विभिन्न विचारों, कर्तव्यो को अच्छे से समझाया गया था, उनका पाठ लिखा गया है. यह पुस्तक उनके जीवन की सबसे प्रभावशाली पुस्तक मानी जाती है. इन्होने 1876 में स्व शासन यानि भारत भारतीयों के लिए स्वराज का आहवान किया था, जिसको बाद में लोकमान्य तिलक ने अपनाया था. इन्होने मुर्तिपूजन का विरोध किया और अनुष्ठानिक पूजा के साथ वैदिक विचारधारा को पुन्यजीवित किया था.
दोस्तों, आईये आज हम आपको दयानंद सरस्वती के जीवन की कुछ ऐसी घटनाओं के बारे में बतायेंगे, जिनका उनके जीवन पर काफी प्रभाव पड़ा है.
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सनातन धर्म के विरोधी दयानंद सरस्वती
दयानंद सरस्वती का जन्म फागुन महीने के चंद्रमा के 10वें दिन या ऐसा कहे की 12 फरवरी 1824 को ब्राह्मण परिवार हुआ था. उनके बचपन का नाम मूलशंकर त्रिवेदी है. बचपन में ही उनका यज्ञोपवीत संस्कार किया गया था, जिससे उनकी औपचारिक शिक्षा की शुरुवात हुई थी. उबके पिता एक प्रसिद्ध ब्राह्मण थे. जो शिव के पुजारी थे. मूलशंकर त्रिवेदी को बचपन से ही शिव की पूजा पाठ की सारी विधियों और व्रतो के महत्व के बारे में बताया गया था. वह बचपन से ही व्रत करते थे.
एक बार की बात है कि मूलशंकर त्रिवेदी ने भगवान शिव के लिए व्रत रखा था. वह पूरी रात जगते रहे की भगवान उन्हें खाने की आज्ञा देंगे, उसकी वक्त उसने देखा की भगवान का भोग एक चुहा खा रहा है और भगवान की प्रतिमा के ऊपर से बार बार जा रहा है. उस वक्त मूलशंकर त्रिवेदी को महसूस हुआ कि जो भगवान एक चूहे से खुद की रक्षा नहीं कर सकते, वह हमारी रक्षा कैसे करेंगे. उसी दिन से उन्होंने मूर्ति पूजा छोड़ दी और वेदों को पढ़ा जिसमे उन्होंने मानव जीवन का सार मिला और साथ ही पुरानो को ना पड़ने की बात भी कही क्यों कि पुरानो में सारी कहानियां काल्पनिक है.
कहा जाता है कि बचपन में ही उनकी सगाई हो गयी थी लेकिन उन्हें शादी नहीं करनी थी. इसलिए वह 1846 में घर से भाग गए थे. 25 साल तक धर्म सत्य की खोज तपस्वी के रूप में करते रहे. इन सैलून में उन्होंने भौतिक चीजों को त्याग कर आत्म त्याग का जीवन व्यतीत किया. धार्मिक पाखंडो, सामाजिक कुप्रथाओ और जातिवाद का जमकर विरोध किया था. मुर्तिपूजन का विरोध किया और अनुष्ठानिक पूजा के साथ वैदिक विचारधारा को पुन्यजीवित किया था. जिसके विरोध में सनातन धर्म को लाया गया.
आर्य समाज के संस्थापक
स्वामी दयानंद सरस्वती जी ईश्वर में यकीं रखते थे, लेकिन मुर्तिपूजन का विरोध करते थे. जिसके चलते उन्होंने 1875 में आर्य समाज की स्थापना की थी. आर्य समाज की स्थापना का मुख्य उदेश्य शारीरिक, आत्मिक और समाजिक तौर पर विकास है. बहुत कम समय में आर्य समाज की शाखा तेजी से बढती जा रही थी, आजादी से पहले आर्य समाज को क्रांतिकारियों का अड्डा कहा जाता था. जो देश की समाजिक कुप्रथाओ के विरोध था. जिन्होंने लोगो को वेदों की ओर जाने का सन्देश दिया था. भारतीय समाज में वर्ण व्यवस्था को परिभाषित किया था, जिसने जातिवाद के विरोध आवाज उठाने में मदद की थी.
आर्य समाज की स्थापना के बाद दयानंद सरस्वती जगह जगह घुमाकर लोगो को वेदों के महत्व के बारे में समझाते थे. क्यों कि उन्हें संस्कृत और वेदों का अच्छा ज्ञान था. सन्यास ग्रहण करने के बाद उनके नाम के साथ स्वामी जुड़ गया था, जिसके उन्हें स्वामी दयानंद सरस्वती कहने लगे.
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