मनुस्मृति पर बहस कब, कहां और कैसे छिड़ जाए ये कहा नहीं जा सकता, लेकिन जब जब इस स्मृति को लेकर बहस छिड़ती है तो इसका मेन मुद्दा महिलाएं और महिलाओं का हक होता है। क्या वाकई ऐसा है कि महिलाओं के खिलाफ किसी सिस्टम या फिर किसी तरह के संदेश के बारे में मनुस्मृति कहती है? क्या महिलाओं को इसके विरोध में अपनी आवाज उठानी चाहिए? मनुस्मृति का जिक्र होते ही ऐसे ही कई कई सवाल उठने लगते हैं। मानव धर्म शास्त्र के तौर पर मनुस्मृति को रखा गया है जिसके बेस पर हिंदू कानून को अंग्रेज़ों ने तय किए।
एक और फैक्ट को अंडरलाइन किया जाता है कि सोसाइटी, रिश्ते और सिस्टम से संबंधित कुछ पहलुओं पर बहुत पुराने सामाज के नियम बताने वाले मनुस्मृति को आज भी कहीं कहीं जगहों पर पंचायतों के लिए गए फैसलों में इस्तेमाल में लाया जाता है। महिलाओं और जाति को लेकर मनु के ये नियम ‘मनुवादी’ सोच जैसा मुहावरा गढ़ते हैं। एक विचारक है पेरियार जो इस स्मृति को तो ‘महिलाओं को सिर्फ वेश्या’ मानने वाला ग्रंथ बताते हैं। सवाल कई है इस स्मृति को लेकर लेकिन एक बड़ा सवाल तो यही है कि 21वीं सदी में किसी ऐसे ग्रंथ की कोई ज़रूरत है क्या? क्या ऐसे ग्रंथ की जरूरत है जो महिलाओं की हालत को अमानवीय तरीके से दिखाए? महिलाओं के नजरिए से देखें? तो मनुस्मृति को लेकर किस तरह की चर्चाएं और सवाल होने चाहिए इस बारे में हम बात करेंगे।
1. महिलाओं को संभाले रखने के बारे में मनुस्मृति का 15वां नियम कहता है!
मनुस्मृति का 15वां नियम कहता है कि ‘महिलाओं का पुरुषों के प्रति चाहत, महिलाओं का जल्दी बदलने वाला मन और स्वाभाविक हृदयहीनता की वजह से अपने पति के प्रति धोखेबाज हो सकती हैं महिलाएं। ऐसे में उनको बहुत संभालकर या फिर बहुत निगरानी में रखना चाहिए। 9वें अध्याय में तो ये तक बताया गया है कि पति और पत्नी के ‘साथ या अलग रहने’ पर क्या क्या कर्तव्य है।
इन नियमों में दिक्कत कहां है इसको सवाल के जरिए ही समझेंगे। क्या महिलाएं किसी की गुलाम हैं? या कोई ऑब्जेक्ट जिस पर हमेशा निगरानी रखने की जरूरत हो? क्या मनुस्मृति का 15वां कायदा और 9वां अध्याय ये समाज में महिलाओं के विकास और सशक्तिकरण के उलट बात नहीं करता? खैर आगे बढ़ते हैं और स्मृति में बताए और नियमों पर गौर करते हैं।
2. मनुस्मृति के दूसरे अध्याय में लिखा है महिलाएं उत्तेजित करती हैं!
मनु ने दूसरे अध्याय में लिखा कि ‘पुरुषों को उत्तेजित करना और बहकाना महिलाओं का स्वभाव ही है। ऐसे में समझदार लोग महिलाओं के आसपास संभलकर रहते हैं साथ ही साथ होश से काम लेते हैं।’
मनुस्मृति के दूसरे अध्याय में जो लिखा है उसमें दिक्कत क्या है- तो सवाल ये हैं कि क्या महिलाओं को बस सेक्स संबंधों या फिर कोई ऑब्जेक्ट की तरह देखना पुरुषवादी विकृति और समाज के लिए बड़ा खतरा नहीं है। क्या ऐसे नियम समाज के आगे बढ़ने की सोच पर ब्रेक लगाने जैसे नहीं हैं।
3. महिलाओं को अकेला छोड़ देने की बात का भी जिक्र है !
मनुस्मृति में सिर्फ महिला वर्ग के लिए नियमों को तय करने की बात नहीं होती है बल्कि इसमें पुरुषों को सज़ा देने की बात ही नहीं की गई है और अगर की भी गई है तो न के बराबर है। एक नियम तो महिलाओं को अकेला छोड़ देने की बात करता है। नियम कहता है कि वैसी महिला जो अपने पति की बेइज़्ज़ती करती हो, किसी व्यभिचार में हो, शराब पीती हो, बीमार रहती हो तो उसको अकेला छोड़ देना चाहिए वो भी तीन महीने के लिए और तो और गहने और सुख सुविधाएं भी छीन लेनी चाहिए।
दिक्कत कहां हैं इस पर गौर करते हैं- इस तरह का नियम बिना किसी शक और बहस के भेदभाव दिखता है तो क्या सवाल नहीं उठाना चाहिए कि पति या पुरुष के शराबी या फिर चरित्रहीन होने पर किसी सजा के बारे में मनुस्मृति क्यों नहीं कहती है पर महिला के लिए सख्त कायदे, ऐसा क्यों? क्यों उनको अलग करने का नियम है?
4. स्मृति के तीसरे अध्याय में महिलाओं के रजस्वला होने का जिक्र है?
तीसरे अध्याय में जिक्र है कि ‘जब ब्राह्मण भोजन करें तब उन्हें किसी सूअर, मुर्गे, या फिर कुत्ते या हिजड़े या ऐसी महिला जो रजस्वला हो या महावारी में हो उसको देखना भी नहीं चाहिए।’ ऐसे ही नियम आज कई घरों में देखने को मिलते है जहां महिलाओं को महावारी के समय न तो किचन में और न तो मंदिर में जाने की अनुमति होती है। क्योंकि माना जाता है कि उस समय वो अपवित्र होती हैं और छूने योग्य नहीं होती। ऐसे ही कई मुश्किल कुरीतियों के कारण महिलाओं को कुछ झेलना पड़ जाता है।
दिक्कत क्या दिखता है इस नियम में तो सवाल ये है कि क्या ऐसे ही मनुवादी नियम और नज़रियों की वजह से मासिक धर्म को अशुद्धि या फिर श्रॉप के तौर देखे जाने की मनसिकता पैदा नहीं हुई होगी। 21वीं सदी में भी इस प्राकृतिक क्रिया की वजह से महिलाएं दुख, अपमान और अलगाव को झेलें, क्या ये तर्कसंगत और न्याय संगत है?
5. महिलाओं के लिए पैमानों को, सौंदर्य को तय करना कितना सही है?
इस स्मृति के तीसरे अध्याय में जिक्र है कि ‘ उस महिला से विवाह न किया जाए जिसके बाल या आंखें लाल हों, जिसे अतिरिक्त अंग हो, जिसकी सेहत अक्सर खराब रहे, जिसके बाल न हों या तो कम हों… तारामंडल, पेड़, नदी, पर्वत, पक्षी, सांप, गुलाम या फिर आतंक से भर देने वाला जिस महिला के नाम के अर्थ के संकेत पर हो या एक ऐसा महिला जो नीची जाति की हो।’ कहा ये भी गया कि अच्छे परिवारों की, सुंदर, आकर्षक महिला से समझदार लोग शादी करते हैं।
दिक्कत ये है कि पुरुष के सौंदर्य या फिर पुरुष के गुणों को लेकर क्यों ये स्मृति बात नहीं करती है। क्यों विवाह के लिए सिर्फ महिलाओं के चुनाव के बारे में जिक्र है जबकि विवाह तो महिला और पुरुष के जोड़े की होती है। अंदर तक झकझोर देने वाला एक सवाल ये भी है कि क्या महिलाओं के जीवन का केंद्र बस शारीरिक सुंदरता ही है? क्या उनका गुण या उनका टैलेंट मायने नहीं रखता है?
6. जिस महिला का कोई न हो तो उसके साथ विवाह के नियम के बारे में क्या कहती है स्मृति ?
इस स्मृति के तीसरे अध्याय के 11वें श्लोक में कहा गया है कि ‘जिसके भाई न हो अथवा जिसके पिता को कोई न जानता हो यानी वो लड़की किसकी है ये किसी को न मालूम हो तो पुत्रिका धर्म की आशंका से बुद्धिमान पुरुष लड़की के साथ व्याह न करे।
दिक्कत क्या है तो यहां सवाल ये उठता है कि आखिर महिला को अपने अस्तित्व के लिए पुरुष के नाम या फिर साथ की क्यों जरूरत है। जबकि 21वीं सदी में महिलाएं अकेले अपने दम पर नाम बनाने के लिए संघर्ष कर रही हैं।
ये जानकारियां अलग अलग स्त्रोतों से जुटाई गई है।