हम जिस सामाज में आज के डेट में रह रहे हैं, उसमें जाति एक बड़ा मुद्दा है और रग रग में ये मुद्दा बसा है। पहले तो एक ही जाति का समाज का होना फिर उसमें भी उपजातियां होना। कितनी जातियों के तो नाम ही नहीं पता होगा। अन्य पिछड़ा वर्ग को ही ले लीजिए इसमें शामिल कई जातियों के बारे में खुद इस वर्ग में आने वाले लोग ही नहीं जानते होंगे। यहां तक कि जाति प्रमाण पत्र जारी करने वाले अधिकारियों को भी इस बारे में डीप नॉलेज नहीं होगी।
ऐसे ही हालात अनुसूचित जातियों का है, जिसमें वैसे तो शामिल 66 जातियों में ज्यादातर का नाम लेता ही नहीं कोई और ये 66 की गिनती सरकारी पैमाने पर है। सबसे बुरे हालात तो जिन्हें घुमंतू, अर्ध-घुमंतू और विमुक्त कहते हैं। दो-दो आयोगों के गठन के बाद भी उनकी हर जिले में कितनी जनसंख्या है इसका कुछ भरोसेमंद आंकड़ा नहीं हैं। ऐसी स्थिति में सवाल उठता है कि इस जातिगत जनगणना की आखिर जरूरत ही क्या है?
शायद ऐसा करने जरूरत इस वजह से पड़ी हो कि अगर हम सब भारत के रहने वाले हैं, तो हमें भी हर जाति के बारे में पता रहना चाहिए। ऐसी कई वजहें हो सकती है जिस पर आइए गौर करते हैं।
हो ये सकता है कि हम भारत की जातिगत विविधता जान सकेंगे इस जातिगत जनगणना के जरिए। हो ये भी सकता है कि जातिवाद का फैलाव जाति आधारित जनगणना से हो, लेकिन ये डर ही लगता क्योंकि इसके आने से किसी की जाति को कोई संकट तो नहीं आएगा और न तो लोग मरने-मारने पर उतारू होंगे।
एक बड़ा सवाल ये है कि जातिगत जनगणना से क्या जातिवाद बढ़ेगा? इस पर गहराई से बात करने की जरूरत है। क्या जातिवाद बढ़ेगा? तो इसका जवाब ना में लगता है क्योंकि इससे जातिवाद नहीं बढ़ेगा। हां, इतना हो सकता है कि शुरुआत में संघर्ष बढ़ेगा। हो सकता है कि कुछ जातियां आरोप जड़ दें कि हमें उपेक्षित किया गया है वैसे ये थिंकिंग जातिगत जनगणना के पहले भी लगती है। इससे हो ये भी सकता है कि भारतीय समाज के छिपी हुई जातियां सामने आएगी और उनको भी उनका अधिकार मिल पाएगा।
जो जातियां पीछे छूट चुकी हैं, उन्हें आगे लाने के लिए एक नए तरह के आयोग का गठन करना होगा। जिनमें इस आयोग में जज, समाज विज्ञानी, समुदाय से जुड़े नेता हों। खुली और पारदर्शी जन सुनवाई की जा सकें। तभी इस जातीय जनगणना का कोई मतलब रह जाएगा।