भारत भले ही एक समृद्ध देश हो लेकिन जिस तरह से उसके पड़ोसी देश एक-एक करके ढह रहे हैं, उसका असर किसी न किसी तरीके से भारत पर भी पड़ने वाला है। अफगानिस्तान, श्रीलंका, पाकिस्तान और अफगानिस्तान के बाद अब बांग्लादेश में हालात इतने बिगड़ गए हैं कि वहां की प्रधानमंत्री शेख हसीना को अपनी कुर्सी और जान बचाने के लिए इस्तीफा देकर भारत की शरण में आना पड़ा। लेकिन ऐसी क्या वजह है कि ये सभी देश अपनी आंतरिक व्यवस्था को संभाल नहीं पा रहे हैं। आइए आपको बताते हैं कि आखिर गलती कहां हो रही है।
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भारत के पाड़ोंसी देश ने झेली ये परेशानियां
भारत की सीमा बांग्लादेश, नेपाल, भूटान, चीन, पाकिस्तान, अफ़गानिस्तान और म्यांमार से लगती है। श्रीलंका और भारत के बीच समुद्री सीमा है। बांग्लादेश में जिस तरह हालात बदतर हुए हैं, उसी तरह के हालात श्रीलंका, पाकिस्तान, अफ़गानिस्तान और म्यांमार में भी देखे गए हैं। एक तरह से इन पाँच भारतीय पड़ोसियों पर मुश्किल हालात मंडरा रहे हैं। इन देशों की जो आज हालात है उसके पीछे कई कारणों से है। मुख्य कारणों में एक विफल अर्थव्यवस्था, एक तानाशाही, तख्तापलट और भीड़तंत्र का घातक मिश्रण शामिल है। भारत के लिए, अपने पड़ोसियों में चुनौतीपूर्ण परिस्थितियाँ हमेशा विवाद का स्रोत रही हैं।
पड़ोसी देशों की गलतियां
बांग्लादेश और पाकिस्तान के बीच मुख्य समानता यह है कि वे अलग-अलग भाषाओं और धर्मों पर आधारित थे। सबसे महत्वपूर्ण कारक यह है कि सेना ने हमेशा इन दोनों देशों पर अधिकार रखा है। नतीजतन, इन दोनों देशों में सेना के विद्रोह के पहले भी उदाहरण हैं, और इन स्थितियों में तख्तापलट नियंत्रण पाने का एक सरल साधन है। इसके विपरीत, श्रीलंका में गिरती अर्थव्यवस्था ने 2022 में जनता द्वारा आयोजित तख्तापलट को जन्म दिया। उस समय प्रदर्शनकारियों ने राष्ट्रपति भवन पर हमला तक कर दिया था।
इसके अलावा, अफ़गानिस्तान में तख्तापलट का इतिहास भारत के तीन पड़ोसी देशों से मिलता-जुलता है। तालिबान के आने के बाद वहां तख्तापलट हुआ। भारत के पड़ोसी देश म्यांमार में भी तख्तापलट हुआ है। 2021 में म्यांमार में चुनाव हुए और आंग सान सू की की पार्टी ने भारी अंतर से जीत हासिल की। इसके बाद, फरवरी 2021 में म्यांमार की सेना ने आंग सान सू की समेत कई अधिकारियों को हिरासत में ले लिया और देश पर कब्ज़ा कर लिया।
तख्तापलट नहीं है इसलिए समृद्ध है भारत का लोकतंत्र
वैसे तो सेना ने भारत में लोकतंत्र की स्थापना में भी योगदान दिया है। लेकिन, सेना राष्ट्रीय राजनीति में शामिल होने से बचती रही है क्योंकि अनुशासन उसके मूल में समाहित है, जो उसे एकजुट रखता है और नागरिक सरकार में हस्तक्षेप से मुक्त रखता है। चूँकि पड़ोसी देशों और दक्षिण एशियाई देशों में इस ज्ञान का अभाव है, इसलिए तख्तापलट और लोकतंत्र का दम घुटना वहाँ जारी है।
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