उत्तर प्रदेश में आने वाले 4 महीनों के बाद इलेक्शन होने वाले है। और यूपी के बारे में जो सबसे ज्यादा गौर करने वाली बात है वो ये कि देश में चाहे जहां भी राजनीतिक एक्टिविटीज चलती रहें उनका इफेक्ट जरूर यूपी की राजनीति पर भी पड़ता है। इसके अलावा गुजरात में भी इलेक्शन होने वाले हैं, तो एक सवाल जो उठता है वो ये कि बीजेपी क्यों बार-बार अपने नेतृत्व को बदल रही है? क्या वो चुनाव जीतने के लिए बार बार मुख्यमंत्री का चेहरा बदलने से जरा भी नहीं हिटकती?
बात पहले उत्तर प्रदेश की करते हैं। वैसे तो यहां पर तो बड़ा बदलाव नहीं देखा गया, लेकिन इतना जरूर है कि यूपी में आने वाले इलेक्शन से पहले काफी ज्यादा उथल-पुथल मच गया है। तो दूसरी तरफ अगर गुजरात की बात करें तो अगले साल एसेंब्ली इलेक्शन होने वाले हैं, लेकिन उससे पहले राज्य में सीएम चेंज किया गया। सीएम पद से विजय रूपाणी ने इस्तीफा दिया और भूपेंद्र पटेल को सीएम पद दिया गया।
ध्यान देने वाली बात तो ये भी है कि उत्तराखंड और कर्नाटक के बाद गुजरात में भी बीजेपी को अपने नेतृत्व को बदलना पड़ा। तो ऐसा क्यों कर रही है बीजेपी? क्या बीजेपी का पहला लक्ष्य चुनाव जीतना है?
दरअसल जितना अंदाजा लगाया जा सकता है उसके मुताबिक किसी भी राजनीतिक पार्टी का जो पहला लक्ष्य होता है वो ये कि जो नेतृत्व हो वो अच्छा हो। जनता के मन के हिसाब का हो। आलाकमान इस पर पूरा पूरा गौर करता है कि चुनाव जीतने के लिए क्या क्या किया जा सकता है। ऐसी स्थिति में बीजेपी का आलाकमान नेतृत्व बदलने में भी गुरेज नहीं करेगा।
सीएम पद पर बैठने वाले पर कई सारे दबाव होते हैं, जैसे कि अच्छा प्रदर्शन करने का दबाव, सियासी प्रभाव जमाने का दबाव और इन मामलों पर हर तरह से अच्छा प्रदर्शन करते रहना ताकि जब पार्टी चुनाव लड़े तो उस नेतृत्व वाले चेहरे से पार्टी को जबरदस्त तरीके से फायदा हो सके।
कर्नाटक और उत्तराखंड में सीएम का चेहरा बदलना भी चुनाव जीतने की रणनीतियों में से एक था। उत्तराखंड के त्रिवेंद्र सिंह रावत की भी मुख्यमंत्री की कुर्सी भी इस वजह से ही गई, क्योंकि उन्होंने कुछ ऐसे फैसले लिए कि पार्टी को चुनाव में नुकसान होने का डर हो गया। दरअसल, गढ़वाल के हिस्से गैरसैंण मंडल में रावत ने कुमांऊ के दो डिस्ट्रिक अल्मोड़ा और बागेश्वर को जोड़ने का फैसला किया था और इस फैसले को कुमांऊ की अस्मिता और पहचान पर घात माना गया।
अब कर्नाटक को ही देख लीजिए बीएस येदियुरप्पा चौथी दफा राज्य के सीएम बनाए गए थे लेकिन अपने चौथे कार्यकाल में भी कुर्सी पर वो बस दो साल ही टिक सके। उनके अगेंट्स पार्टी में काफी असंतोष फैल रहा था। यहां तक की सीनियर नेताओं ने तो ये तक अरोप लगाया कि उनकी अनदेखी हो रही है। उन पर भ्रष्टाचार में शामिल होने तक आरोप लगे और तो और उनके बेटे के सरकारी कामकाज में इंटरफेरेंस के भी आरोप लगाए गए। पार्टी में सीएम के अगेंट्स अगर असंतोष हो तो पार्टी के लिए बड़ी मुश्किल हो जाता है चुनाव जीतना। इसी फॉर्मूले के तहत मुख्यमंत्री की कुर्सी येदियुरप्पा से छीन ली गई।